Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 503
________________ बयधवलासहिदे कसायपाहुंडे हिदिविहत्ती ३ संकिलेसं गंतूणुक्कस्सहिदि वंधिय बंधावलियादीदकसायहिदीए संकामिदाए अंतोमुहुत्तकालं सव्वमरदि-सोगाणमुक्कस्सहिदी होदि । कुदो ? कसायाणमुक्कस्सहिदीए उक्कस्ससंकिलेसेण बज्झमाणाए हस्स-रदीहि विणा अरदि-सोगाणं चेव बंधसंभवादो। कसायुक्कस्सहिदिविहत्तिकालेण अरदि-सोगाणमुक्कस्सहिदिविहत्तिकालो सरिसो कसायाणमक्कस्सहिदिबंधे थक्के वि आवलियमेत्तकालमरदि-सोगाणमुक्कस्सद्विदिविहत्तिदंसणादो। संपहि इथिवेदहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण अंतोमुहुत्त णा । पुणो अण्णेणं जीवेण कसायाणं समऊणुक्कस्सद्विदिमंतोमुहुत्तकालं बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणइत्थिवेदम्मि बंधावलियादीदकसायहिदी संकामिदा । ताधे इत्थिवेदहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण समऊणा। तदो अंतोमहुत्तकालमित्थिवेदं बंधिय अवरेगमंतोमुहुत्तकालं णसयवेदं बंधिय पणो अंतोमहत्तणुक्कस्ससंकिलेसं पूरेदृणुक्कस्सकसायदिदि बंधिय बंधावलियादीदकसायहिदीए संकामिदाए अरदि-सोगाणमक्कस्सहिदी होदि । तम्मि समए इत्थिवेदो अप्पणो उक्कस्सहिदि पेक्खिण समयाहियअंतोमुहुत्त णो होदि । एवं दुसमयाहिय-तिसमयाहिय-अतोमहुत्तमूर्ण कादण णेदव्वं जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । एवं परिसवेदस्स । णqसयवेदस्स एवं चेव । णवरि समऊणमादि कादूण [ जाव ] वोसंसागरोवमकोडाकोडीअो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणाओ त्ति णेदव्वं । होकर और कपायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रमित होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि कपायकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट संक्लेशसे बँधने पर हास्य और रतिको छोड़कर अरति और शोकका ही बन्ध संभव है। यद्यपि अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल कषायकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके कालके समान है तो भी कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके रुक जाने पर भी एक आवलि काल तक अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति देखी जाती है। यहाँ पर स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम है। पुनः अन्य जीवने कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको अन्तर्महूर्त काल तक बाँधा और प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें बँधनेवाले स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया तो उस समय स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम होती है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्त्रीवेदका बन्ध करके तथा दूसरे एक अन्तमुहूर्त काल तक नपुंसकवेदका बन्ध करके पुनः एक अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके और कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर बन्धावलिसे रहित उस कषायकी स्थितिका अरति और शोकमें संक्रमण होनेपर अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति होती है। तथा उस समय स्त्रीवेद अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिवाला होता है। इसी प्रकार दो समय अधिक और तीन समय अधिक अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक स्त्र वेद की स्थिति घटाते जाना चाहिये। इसी प्रकार पुरुषवेदकी स्थिति होती है। तथा नपुंसकवेदकी स्थिति भी इसी प्रकार होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक घटाते हुए ले जाना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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