Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियश्रप्पाबहुलं कसाएहिं सह भाणिदव्वं । सव्वविगलिंदियाणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । ___६०० कायाणुवादेण सव्वपुढवि०-सव्वाउ०-सव्वतेउ०-सव्ववाउ०-सव्ववणफदि०-सव्वणिगोद०-बादरवणप्फदिपत्तेय-पज्जत्तापजत्ताणं एइंदियभंगो। वे अण्णाण-अभव०-मिच्छादि०-असण्णीणं च एइदियभंगो । णवरि अभव्वेसु सम्मत्तसम्मामि० णस्थि । ९०१. देवगईए देवाणं णारगभंगो। एवं भवण ०-वाणवेंतर० । णवरि सम्म सम्मामिच्छत्रेण सह भाणिदव्वं । जोइसियेसु सव्वत्थोवा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त०अणंताणु० चउक्काणं ज० विहत्ती। बारसक० रणवणोक० ज० विह० असंखे०गणा । ज. हिदि० संखे गुणा । मिच्छत्त. ज. विहत्ती विसेसा० । ६०२. सोहम्मादि जाव णवगेवज्जाति सव्वत्थोवा सम्मत्तज. विहत्ती । सम्मामि० अणंताण० चउक्क० ज० विहत्ती तत्तिया चेव । ज० हिदी० संखेज्जगणा। बारसक०-णवणोक० जहण्णविहत्ती असंखे गणा; कालपहाणचावलंबणादो। णिसेयपहाणचे पुण बारसक०-अहणोकसायाणमुवरि पुरिसवेदज. हिदिवि० विसे । एसो अत्थो अएणत्थ वि वत्तव्यो । मिच्छत्तज० विह० संखे०गणा। अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि त्ति सव्वत्थोवा सम्मत्तज. विहत्ती । अणंता० चउक्क० जहिदिविहत्ती और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन बारह कषायोंके साथ करना चाहिये। सब विकलेन्द्रियोंका भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान है। ६६००. कायमार्गणाके अनुवादसे सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंके एकेन्द्रियों के समान भंग है। मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके एकेन्द्रियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं। ६६०१. देवगतिमें देवोंका भंग नारकियों के समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका सम्यग्मिथ्यात्वके साथ अल्पबहुत्व कहना चाहिये। ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है इससे बारह कषाय, नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे यत्स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। ६६०२. सौधर्म स्वर्गसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति उतनी ही है। पर यस्थिति संख्यातगुणी है। इससे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है क्योंकि यहां पर कालकी प्रधानता स्वीकार की गई है। निषेकोंकी प्रधानता रहनेपर तो बारह कषाय और आठ नोकषायोंके ऊपर पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। यह अर्थ अन्यत्र भी कहना चाहिये। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564