Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 555
________________ ५३६ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ दुगुंछाणं पुण सागरोवमसहस्सस्स वे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखे० भागेणूणा, भयदुगुकाणं धुवबंधित्तणेण पंचिंदिएसुप्पण्णपढमसमए वि बंधसंभवादो । तेण णवुस० जहण्णहिदीदो भयदुगुछजहण्ण हिदी संखेजगुणा ति सिद्ध । बारसक० जहण्णहिदी संखे गुणा । कुदो ? पलिदो० संखे०भागेणूणं सागरोवमसहस्सचत्तारिसत्तभागत्तादो। मिच्छत्तजहण्णहिदी विसे, पलिदो० संखे०भागेगुणसागरोवमसहस्सस्स सत्त सत्त भागत्तादो। जोगिणीसु एवं चेव, णवरिं सबथोवा सम्मत्त-सम्मामि०-अणताणु० चउक० ज० हिदिविहत्ती। ८६८. पंचिंदियतिरिक्ख अपजत्तएसु सव्वत्थोवा सम्मच-सम्मामि० ज० हिं दिवि० । पुरिस० ज० हिदिवि० असंखेन्गुणा। सेस. पंचिंतिरिक्खभंगो । णवरि अणंताणु० चउकारणं बारसक०भंगो। एवं मणुसअपज्ज०-पंचिं० अपज्जा-तसअपज्जताणं। ८६६. एइंदिय-बादरेइंदियपज्जतापजन-सुहुमेइंदियपज्जतापज्जताणं तिरिक्खोघभंगो । णवरि सम्म सम्मामिच्छतेण सह वत्तव्वं, अणंताणु०चउक्क च बारसअन्तर्मुहूर्त कालतक एकेन्द्रियोंका स्थितिसत्त्व ही पाया जाता है। परन्तु भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमका संख्यातवां भाग कम दो भागप्रमाण पाई जाती है; क्योंकि भय और जुगुप्सा ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियां होनेसे पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें भी उनका बन्ध संभव है, इसलिये नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिसे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी होती है यह सिद्ध हुआ। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिसे बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है, क्योंकि बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग कम चार भागप्रमाण है। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति विशेष अधिक है, क्योंकि इसका प्रमाण हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमका संख्यातवां भाग कम सात भागप्रमाण है। पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। ८. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। शेष प्रकृतियोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग बारह कषायोंके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और बस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। ८६६. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका कथन सम्यग्मिथ्यात्वके साथ करना चाहिये। १ श्रा प्रतौ -भागेणणा' इति पाठः । २ श्रा ता. प्रत्योः 'हिदिवि० संखे गुणा । पुरिस० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564