Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 502
________________ गा० २२ ] वित्तीय उत्तरपयडिद्विदिविहत्तिय सयिण्यासो * एवरि विसेसो जाणियव्वो । ९८१३. एत्थ विसेसपरूवणह वुच्चदे - अरदि-सोगाणमक्कस्स डिदिणिरु भणं कादूण भण्णमाणे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त- सोलसकसायाणं णव सयवेदभंगो । अरदि-मोगाणमक्कस्महिदीए संतीए इन्थिवेदस्स सिया उक्कस्सद्विदी; पडिहग्गपढमसमए अरदि-सोगेहि सह इत्थिवेदे बज्झमाणे तिन्हं पि उक्कस्सडिदिविहत्तिदंसणादो । अण्णा अणुक्कस्सा; बंधाभावे कसाय हिदिपडिच्छणसत्तीए अभावादो । अथ अणुकस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । कुदो ? इत्थवेदबंध कालस्स एसमए संते समयूणउक्कस्सडिदिसंतुवलंभादो । * ८१४. जेसिमाइरियाणमित्थिवेदबंधकालो जहण्णओ अंतोमुहुत्तमेतो तेसिमहिप्पारण अंतमुत्तूणमादिं काढूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । तं जहा — कसायुक्रसहिदिं बंधिय पहिग्गसमए इत्थवंद - अरदि-सोगाणमावलियमेत्तकालमुक्कसहिदी होदि । संपति इत्थवेदबंधो जाव अतोमहुत्तं ण गदं ताव ण फिट्टदि । एदम्मि आवलियवज्र्ज्जतोमुहुत्तमेत्तइत्थिवेद बंधकालम्मि इत्थिवेद - अरदि-सोगाणं द्विदीओ अधडिदिगलणाए गलमाणाओ चे 'ति । कुदा ? जाव अतोमुहुत्तं ण गदं ताव संकिलेसं पूरेदु णो सक्कदि त्ति काढूण लहुमुक्कस्सद्विदिं बंधाविदो । पुणो तप्पा ओग्गेण जहण्णकालेणुक्कस्स * परन्तु कुछ विशेष जानना चाहिये । ९८१३. अब यहाँ पर विशेषका कथन करते हैं - अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिको रोककर कथन करने पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मध्यात्व और सोलह कषायों का भंग नपुंसकवेदके समान है । अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति के रहते हुए स्त्रावेदका कदाचित् उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि प्रतिभग्नकालकं प्रथम समयम अरात और शाकक साथ स्त्रावेदके बन्ध होने पर तीनों ही उत्कृष्टस्थितिविभक्ति देखा जाती हैं । अन्यथा अरति और शाककी उत्कृष्ट स्थिति के समय स्त्रावेदकी (स्थात अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होन पर उसमें कषायकी स्थितका संक्रमित करनेका शक्ति नहीं पाई जाती है । अब यदि अनुत्कृष्ट स्थिति होती है तो वह एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिस लेकर अन्तः काडाकाड़ा सागर तक होता है, क्योंकि स्त्रावेदके बन्धकालके एक समय होनेपर एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति पाई जाता है । Jain Education International ८१४. किन्तु जिन आचार्योंक मतसे स्त्रावेदका जघन्य बन्धकाल भी अन्तर्मुहूर्त है उनके अभिप्रायानुसार अन्तमुहूत कम उत्कृष्ट स्थिति से लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक अनुत्कृष्ट (स्थति पाई जाती है । उसका खुलासा इस प्रकार हैं- कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्नकाल में स्त्रावेद, अति और शोककी एक आवलिकाल तक उत्कृष्ट स्थिति होती है । यहाँ पर स्त्रीवेदका बन्ध जब तक अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत नहीं हुआ है तब तक नहीं छूटता है। इस एक आवलिसे रहित अन्तर्मुहूतं प्रमाण स्त्रीवेद के बन्धकाल में स्त्रीवेद, अरति और शोककी स्थितियाँ अधःस्थिति गलनाके द्वारा गलती रहती हैं, क्योंकि जब तक एक अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत नहीं हुआ है। तब तक उत्कृष्ट संक्लेशको पूरा करना शक्य नहीं है, ऐसा समझकर छोटे अन्तर्मुहूते काल तक कृष्ट स्थितिका बन्ध कराया है। पुनः उसके योग्य जघन्य कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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