Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 543
________________ ५२४ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ O' णवणोक० | ताणु० कोध० ज० मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० - बारसक०- -णवणोक णिय० ज० संखेज्जगुणा' । तिण्णि कसा० णिय० जहण्णा । एवं तिष्णं कसायाणं । सम्म० जह० द्विदिविह० सम्मामि० णिय० जह० । सेससव्व० निय० अज० संखे०गुणा । एवं सम्मामि० । अणाहाराणं कम्मइयभंगो | एवं सणियासी समत्तो । * [ अप्पाबहु । ] $ ८७१. अप्पा बहुअं दुविहं द्विदिप्पा बहुअं जीवअप्पाबहुअं चेदि । तत्थ हिदिअप्पाबहुयं वत्तइस्लामो । * सव्वत्थोवा णवणोकसायाणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती । १८७२ कुदो? बंधावलियूणचचालीस-सागरोवमकोडाकोर्डिपमाणत्तादो। किमडधावलिया ऊणा ? ण, बद्धसमए चेव कसायुक्कस्सहिदीए णोकसायाणमुवरि संकमणसत्तिविरोहादो । तं पि कुदो १ साहावियादो | ण च सहावो परपडि जोयणारुहो, स्थितिविभक्तिवाले जीवों के जानना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्रोध की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति नियमसे जघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। तथा तीन कषायोंकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिध्यात्वकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है । तथा शेष सब प्रकृतियोंकी स्थिति नियम से अजघन्य होती है । जो जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अनाहारकों के कार्मण काययोगियोंके समान भंग हैं । इस प्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ । * अल्पबहुत्वका अधिकार है । ९ ८७१. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है -स्थिति अल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्व | उनमें से स्थिति पबहुत्वको बतलाते हैं * नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है । १८७२ क्योंकि नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण बन्धावलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर हैं । शंका- इसे एक बन्धावलिप्रमाण कम किसलिये किया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि बन्ध होनेके पहले समय में ही कषायों की उत्कृष्ट स्थितिमें नौ नोकषायरूपसे संक्रमण होनेकी शक्ति माननेमें विरोध आता है । शंका- ऐसा क्यों है ? समाधान - क्योंकि ऐसा स्वभाव है और स्वभाव दूसरेकी प्रकृतिके अनुरूप होता नहीं, १. ता॰ प्रतौ ‘संखे०गुणा' इति पाठः । २. ता० प्रतौं 'कोडीओ' इति पाठः । ३. श्र०प्रतौ 'परपयाड' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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