Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 548
________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तिय अप्पाबहुअं પરક पज्जत्तापज्जत्त- बादरवणप्फदिपज्ज. - सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त - णिगोदवणप्फदिबादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज.-तस अपज्जत्तेत्ति । ८८६. प्राणदादि जाव उवरिमगेवज्जो ति सव्वत्थोवा सोलसक०-णवणोक० उक्कस्सहिदिविहत्ती। सम्मामि० उक्कस्सहिदिविहत्ती विसे० । मिच्छत्त-सम्मत्त उक्क० हिदिवि० विसे । एवं सुक्कलेस्साए । णवरि सम्मत्तस्सुवरि मिच्छ० उक्क० विसे० । अणुदिसादि जाव० सव्वदृसिद्धि त्ति सव्वत्थोवा सोलसक०-णवणोक० उक्क०हिदिविहत्ती। मिच्छत्त-सम्मामि० उक्क० वि० विसे । सम्मत्तुक्क० विह. विसे० । एवमाहारआहारमि०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयच्छेदो०-परिहार०संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०-वेदयसम्मादिहित्ति ।। १८८७ इंदियाणु० एइंदियेसु सव्वत्थोवा णवणोक० उक्क०हिदिविहत्ती । सोलसक० उक्क० वि० विसे । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० विहत्ती विसे । मिच्छत्तक्क० वि. विसे । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्त-पुढवि०-बादरपुढवि०-तप्पज्ज०-आउ०बादराउ०-तप्पज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेय-तप्पज्ज०-ओरालियमिस्स०-वेउ मिस्स-कम्मइय-तिण्णिअण्णाण-मिच्छादिहि-असण्णि०-अणाहारए त्ति । एवमभवसि० । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० णत्थि । निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। ६८८६. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तक देवोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां सम्यक्त्वके अनन्तर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति] विशेष अधिक है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। ८८७. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंके जानना चाहिये। तथा अभब्योंके इसी प्रकार जानना। किन्तु इनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564