Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासेहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहती है ज्जत्ताणं ।
६८५३. देवाणं णारयभंगो। भवण-वाणवेंतराणमेवं चेव । णवरि सम्मत्तः सम्मामि० भंगो : जोदिसि० विदियपुढविभंगो । सोहम्मीसाणादि जाव उवरिमगेवज्जोत्ति मिच्छत्तजह विहत्ति० बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० १ णियमा अज० संखे० गुणा। सम्मत्त० किं ज. अज० ? णि. अज. असंखे गुणा । एवं सम्मामि० । सम्मत्त० जह० विह० बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णियमा अज० वेढाणपदिदा संखे० भागब्भहिया । कुदो ? उवसमसेटिं चढिय ओदरिदूण दंसणमोहणीयं खविय कदकरणिज्जो होदूण ५ देवेमुप्पण्णस्स संखेन्जभागब्भहियत्तुवलंभादो। संखेनगुणा वा, उवसमसेटिं चढिय दंसणमोहणीयं खत्रिय कदकरणिजो होदण देवेमुप्पण्णस्स संखे० गुणत्तुवलंभादो । किरियाविरहिदसम्मादिहीणं हिदिखंडयघादो णत्थि त्ति भणंताणमाइरियाणमहिप्पारण एवं भणिदं । किरियाए विणा तिव्यविसोहिवसेण हिदिखंडयघादो देवेसु अस्थि त्ति भणताणामहिप्पारण संखेजगुणा चेव । गेरइयभवण-वाण-जोदिसियसम्माइट्ठीणं किरियाए विणा पत्थि हिदिखंडयघादो । कुदो ? साभावियादो। सम्मामि० जह• बिहत्ति० मिच्छत्त०-बारसक-णवणोक० किं ज० जीवोंके जानना चाहिये ।
__६८५३. देवोंके नारकियोंके समान भंग है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषा देवोंके भंग दूसरी पृथिवीके समान है ।सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भंग जानना चाहिये। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो दो स्थान पतित होती है। उनमेंसे पहली संख्यातवें भाग अधिक होती है क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणीपर चढकर और उतरकर अनन्तर दर्शनमोहनीयका क्षय करता हुआ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके उक्त प्रकृतियों की स्थिति संख्यातवें भाग अधिक देखी जाती है। या संख्यातगुणी अधिक होती है क्योंकि उपशमश्रेणीपर चढ़कर और वहांसे उतरकर दर्शनमोहनीयका क्षय करता हुआ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होकर जो देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके उक्त प्रकृतियोंकी स्थिति संख्यातगुणी अधिक देखी जाती है । क्रिया रहित सम्यग्दृष्टियोंके स्थितिकाण्डकघात नहीं होता है ऐसा माननेवाले आचार्यों के अभिप्रायानुसार उक्त कथन किया है। परन्तु जो आचार्य क्रियाके बिना तीव्र बिशुद्ध परिणामोंसे देवोंमें स्थितिकाण्डकघात होता है ऐसा मानते हैं उनके अभिप्रायानुसार उक्त प्रकृतियोंकी स्थिति संख्यातगुणी ही होती है। तो भी नारकी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी सन्यग्दृष्टि जीवोंके क्रियाके बिना स्थितिकाण्डकघात नहीं होता है क्योंकि ऐसा स्वभाव है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके
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