Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो
* मिच्छत्रोण णीदो सेसेहि वि अणुमग्गियव्वो ।
६८३६ मिच्छत्तजहण्णहिदीए सह सण्णियासो णीदो कहिदो परुविदो त्ति उ होदि । सेसेहि वि कम्मेहि एसो जहण्णसण्णियासो अणुमग्गियव्वो गवेसियव्वो त्ति उत्तं होदि।
८३७. एवं जइवसहाइरियमुहविणिग्गय चुण्णिमुत्ताणं देसामासिएण सूचिदस्स उच्चारणपरूवणं कस्सामो । जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-प्रोघेण आदेसेण ।
ओघेण मिच्छत जहण्णहिदिविहत्तियस्स सम्मत-सम्मामि० किं जह• अजह ? णियमा अजह० असंखे० गुणब्भहिया । बारस०-णवणोक० किं जह० अजह ? णियमा अज०. असंखे० गुणब्भहिया । अणंताणुबंधी णिस्संता ।
८३८. सम्मत्तस्स जह० बारसक०-णवणोक० किं जह० अज० ? णियमा अज० असंखे०गुणब्भहिया । सेसस्स असंतं ।
८३६, सम्मामि० जह०विहत्तियस्स मिच्छत्त-सम्मत्त-अणंताणु० सिया अत्थि सिया णत्थि । यदि अत्थि किं जह० अजह० १ णियमा अज० असंखे०गुणब्भहिया । बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? णियमा अज० असंखेजगुणा ।
* जिस प्रकार मिथ्यात्वके साथ सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार शेष कर्मों के साथ भी उसका विचार करना चाहिये ।
१८३६. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके साथ सन्निकषं कहा है उसी प्रकार शेष कर्मोके साथ भी यह जघन्य सन्निकर्ष कहना चाहिये । सूत्रमें जो ‘णीदो' पद है उसका अर्थ 'कहना चाहिये, प्ररूपण करना चाहिये' यह होता है तथा 'अणुमग्गियव्वो' पदका अर्थ खोजना चाहिये' होता है।
६८३७. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए चूणिसूत्रोंके देशामर्षक होनेसे सूचित हुए अर्थकी उच्चारणाका कथन करते हैं-अब जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यात गुणी अधिक होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी अधिक होती है । तथा अनन्तानुबन्धीका यहाँ अभाव है।
८३८ सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी अधिक होती है । इसके शेष प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है।
६८३६. सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये छह प्रकृतियाँ कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं है। यदि हैं तो इनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे
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