Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो
২৬৩ ४६५ पंचिंतिरि०अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णक्क० एगसमो। अणुक्क० ज० खुद्दा भवग्गहणं समऊणंउक्क. अंतोमु० । सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क० जहणुक्क० एगसमओ । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्ज०-पंचिं०अपज तसअपज्जत्ताणं ।
सत्त्व बना रहता है । अतः सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थतिका उत्कृष्ट काल पृथक्त्व पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य कहा है। पंचेन्द्रियपर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंके सब कर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष सब काल पूर्ववत् है। किन्तु मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तककी सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीकी पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य उत्कृष्ट कायस्थिति जाननी चाहिये। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है जिसका खुलासा पहले किया ही है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीके इसी प्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु इनके मिथ्यात्व श्रादिकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय क्रमसे सेंतालीस, पन्द्रह और सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य उत्कृष्ट काल कहना चाहिये ।
४६५ पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषयोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समयकम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर और स्थितिघात न करके अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है उसके पहले समयमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इसी प्रकार नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय जानना चाहिये पर यह संक्रमणसे प्राप्त होता है। तथा इस एक समयको छोड़कर शेष खुद्दाभवग्रहण प्रमाण काल उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल है और लब्धपर्याप्त अवस्थामें रहनेका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अब यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिके बिना ही पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्त हुआ और अपने उत्कृष्ट कालतक उसने वह पर्याय न बदली, पुनः पुनः उसीमें उत्पन्न होता रहा तो उसके उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त पाया जाता है। इसी प्रकार भवके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय घटित कर लेना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जानना चाहिये । मूलमें और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये ।
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