Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तीए भंगविचओ
३५३ पज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०- बादरतेउ०अपज्ज०-सुहुमतेउ०-मुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिजिगोद-बादर-सुहमपजत्तापजत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्ज० - ओरालियमिस्समदि-सुदअण्णाण-मिच्छादि०-असण्णि त्ति । णवरि पुढवि-आउ०-तेउ०-बाउ०-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीराणं सगसगबादरपज्जत्तभंगो। ओरालियमिस्सादिसु सत्तणोकसायाणं तिरिक्खोघं । अभव० एवं चेव । णवरि सम्मत्त०-सम्मामिच्छत् णस्थि ।
५१८ कम्मइय० सम्म०-सम्मामि० अह भंगा। सेस० जहण्ण० णियमा अस्थि । एवमणाहारीणं । असंजद तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्तमोघं । किण्ह-णीलकाउ० तिरिक्खोघं ।
एवं जहण्णो णाणाजीवभंगविचयाणुगमो समत्तो ।
एवं णाणाजीवहि भंगविचओ समत्तो। सूक्ष्मजलकायिकअपर्याप्त, अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक, बादरअग्निकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिकअपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिकअपर्याप्त, बादरवनस्पति कायिकप्रत्येकशरीर, निगोद, बादरनिगोद, बादरनिगोदपर्याप्त, बादरनिगोदअपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद,सूक्ष्मनिगोदपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोदअपर्याप्त, बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और बादरवनस्पतिकाथिकप्रत्येशरीर जीवोंके अपने अपने बादर पर्याप्तकों के समान भंग है। तथा औदारिकमिश्रकाययोगी आदिमें सात नोकषायोंका भंग सामान्य तियचोंके समान है। अभव्योंमें भी इस जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं।
६५६८. कार्मणकाययोगियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। तथा शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिये। असंयतोंमें सामान्य तियचोंके समान जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये।
विशेषार्थ-पहले ओघसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जिस प्रकार छह भंग बतला आये हैं उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा छह भंग जानने चाहिये। तथा यह ओघ प्ररूपणा सामान्य नारकियोंसे लेकर आहारक तक मूलमें जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें अपनी अपनी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा घटित हो जाती है, अतः इनकी प्ररूपणाको श्रोघके समान कहा । तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी आदेशसे जो जघन्य और अजघन्य स्थिति बतलाई है उसकी अपेक्षा उनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले नाना जीव नियमसे हैं, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले नाना जीव नियमसे हैं। तथा उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले नाना जीव नियमसे हैं ये दोभंग ही बनते हैं । हाँ इनके अतिरिक्त शेष
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सी प्रकार
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