Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जमधवल सहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती
$६५१. पंचि०तिरिक्ख० अपज्ज० सव्वपयडीणमुक्क० के० ? जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सव्वेइंदिय सव्वविगलिंदियपंचि ० अपज्ज०- पंचकाय ० - बादर सुहुमपज्जत्तापज्जत्त-तस अपज्ज०० - ओरालिय मिस्सकायजोगि त्ति । णवरि जत्थ देवाणमुववादो तत्थ णवणोकसाय उक्क० श्रघमंगो ।
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स्थितियों के कालका खुलासा चूर्णिसूत्रों की टीका करते हुए स्वयं वीरसेन स्वामीने किया ही है। अतः यहां उसे पुनः नहीं दुहराया गया है । इसी प्रकार सब नारकी आदि असंख्यात और अनन्त संख्यावाली कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें ओघके समान उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति तथा उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल बन जाता है, अतः उनके कथनको ओघ के समान कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः उनके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति तथा उनके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन नहीं करना चाहिये ।
§ ६५१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों का कितना काल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सवंदा है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और औदारिक मिश्र काययोगी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहां देवोंका उपपाद है वहां नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है ।
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विशेषार्थ — पहले ओघसे उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय बतला आये हैं अब यदि घसे उत्कृष्ट स्थितिवाले ये जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न हों तो उनके भी आदेश उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय ही पाया जायगा, क्योंकि द्वितीयादि समयों में उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका अभाव हो जानेसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में भी आदेश उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सम्भव नहीं, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा । तथा इनमें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो इस प्रकारसे प्राप्त होता है - घसे उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालका कथन करते हुए बताया है कि नाना जीव निरन्तर यदि उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करते रहें तो आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही जीव उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होंगे तथा उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि जीवोंकी संख्यासे काल के प्रमाणको गुणित कर दिया जाता है तो उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रेमाण प्राप्त होता है । किन्तु ऐसे rtain यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में क्रमसे उत्पन्न कराया जाय तो उनमें एक एक अन्तर्मुहूर्त के बाद ही उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होगी, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तं तक उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर जो जीव पंचेन्द्रिय तिर्येच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकालके अन्तिम समय में बंधी हुई स्थिति ही उत्कृष्ट हो सकती है इसके अतिरिक्त और सब स्थितियां अनुत्कृष्ट हो जायंगी, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके अन्तिम समयमें बंधी हुई स्थिति कालसे उनका काल एक समय, दो समय आदि रूपसे और कम हो जाता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में निरन्तर ऐसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये जिन्होंने क्रम से एक एक समय तक निरन्तर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया हो । इस प्रकार
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