Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
४२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ घेदय० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणताणु०चउक्क० आभिणिभंगो। सेसपयडी० उक्कभंगो । उवसम० अणंताण चउक्क० ज० अज० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । सेसपयडी० उक्कभंगो। सासाण०-सम्मामि० उक्क भंगो।
एवमंतराणुगमो समत्तो । ७०७. भावाणुगमो दुविहो--जहण्णो उक्कस्सो चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्साणुक्कस्सपदाणं सव्वेसिं को भावो ? ओदइओ; मोहोदएण विणा तेसिमसंभवादो। ण उवसंतकसाएण वियहिचारो, तत्थ संतस्स मोहणीयस्स उदओ गत्थि चेवे त्ति णियमाभावादो। भाविम्मि भूदोवयारेण तत्थ वि ओदइयभावुवलंभादो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
७०८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपयडि० ज० अज० को भावो ? ओदइओ । कुदो ? सरीरणामकम्मोदएण कम्मइयवग्गणक्खंधाणं कम्मभावेण परिणामुवलंभादो । एसो अत्थो एत्थ पहाणो त्ति औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंका अन्तर ओघके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है । सासादन और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें उत्कृष्टके समान भंग है ।
विशेषार्थ-कृष्ण और नीललेश्यामें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता है अतः इनमें सम्यक्त्वके भंगको सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। पीत और पद्य लेश्यामें सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना होती है अतः इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान कहा। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६७०७. भावानुगम दो प्रकार है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सभी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट पदोंका कौनसा भाव है ? औदायिक भाव है। क्योंकि मोहनीय कर्मके उदयके बिना कोई पद नहीं होता है इसलिये सब पदोंमें औदायिक भाव है। यदि कहा जाय कि ऐसा मानने पर उपशान्तकषायके साथ व्यभिचार प्राप्त होता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहा पर विद्यमान मोहनीयका उदय नहीं ही होता है ऐसा नियम नहीं है क्योंकि भाविकार्यमें भूत कार्यका उपचार कर देनेसे वहां भी औदायिक भाव पाया जाता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
६७०८. अब जघन्य भावानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देष दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सब प्रेकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कौनसा भाव है ? औदायिक भाव है। औदायिक भाव क्यों है ? क्योंकि शरीर नामकर्मके उदयसे कार्मण वर्गणास्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन पाया जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org