Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ऊणा संकमदि 'बंधे संकमदि' ति सुत्रेण सह विरोहादो। ण च कसायहिदि सगुवरि संकंतं मोत्तण सगबंधेणेदासिं चदुण्हं पयडीणमुक्कस्सहिदिसतं होदि; दस-पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदीणमावलियूणचालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तविरोहादो ।
ॐ उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव अंतोकोडा
कोडि त्ति।
___ ७४२. तं जहा-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए चेव इथिवेदं बंधाविय बंधावलियादिक्कतं कसायहिदि उक्कस्समित्थिवेदम्मि संकामिदे इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती होदि । तस्समए मिच्छत् णियमा अणुक्कस्सं, तत्थ तस्मुक्कस्सहिदिबंधाभावादो । तदो अंतोमुहुत्तमच्छिय संकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए तत्काले इत्थिवेदहिदी अप्पणो उक्कस्सहिदि पेक्खिदूण अंतोमुहूत्त णा उनमें बन्धावलिसे कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण हो जायगा, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर "बंधे संकामदि। इस सत्रके साथ विरोध आता है। यदि कहा जाय कि कषायकी स्थितिका इनमें संक्रमण होकर जो इनकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है उसे छोड़कर अपने बन्धसे इन चारों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि दस
और पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंके एक आवलीकम चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण होनेमें विरोध आता है।
विशेषार्थ-संक्रमणके पाँच भेद हैं। इनमेंसे अधःप्रवृत्त संक्रम जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उसमें ही अन्य सजातीय प्रकृतिका होता है। किन्तु मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होते समय स्त्रीवेद आदि चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, अतः सोलह कषायोंका पहले उत्कृष्टस्थिति बन्ध करावे और एक आवलि बाद स्त्रीवेद आदिका बन्ध कराते हुए उनमें एक आवलि कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण करावे । पुनः अन्तर्मुहूर्तमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त कराके मिथ्यात्वकी उत्कष्ट स्थितिका बन्ध करावे। इस प्रकार यह सब व्यवस्था देखनेसे विदित होता है कि जिस समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है उस समय स्त्रीवेद आदिकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम होती है। यहाँ बन्धकी अपेक्षा इन चारों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होनेका प्रश्न इसलिए नहीं उठता है, क्योंकि बन्धसे इनका उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व न प्राप्त होकर संक्रमणसे ही उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व प्राप्त होता है। इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना होता है और उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कितना होता है यह स्पष्ट ही है ।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्तकम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी तक होती है।
६७४२. उसका खुलासा इस प्रकार है-सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके समयमें ही जो स्त्रीवेदका बन्ध करके बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका स्त्रीवेदमें संक्रमण करता है उसके उस समय स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । और उस समय मिथ्यात्व नियमसे अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि वहां पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त ठहर कर और संक्लेशकी पूर्ति करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर उस समय स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको
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