Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 490
________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तियस पिण्यासो ४७१ वित्ती होदि । तदो उवरिमसमए अरदि- सोगबंध वोच्छेददुवारेण हस्स - रदीसु बंधमागयासु अरदि-सोगुक्कसहिदी समयूणा होदि; पडिग्गहत्ताभावेण तत्थ कसायहिदी संकमाभावाद । एवमुवरि वि वत्तव्वं जाव समयूणावलियाए ऊणमुक्कस्सहिदी जादा ति । सुवरिमपरूवणा जहा हस्स~रदीणमित्थिवेदुक्कस्सट्ठिदिसंबंधाणं कदा तहा कायव्वा वरि एत्थ समयूणा बाहा कंड एणूणवीस सागरोवमकोडाकोडीओ कसायुंक्कस्सडिदिबंधेण सह अरदि-सोगे बंधाविय पडिहग्गसमए अरदि-सोगबंधवोच्छेदं काढूण श्रावलियमेतद्विदीओ गालिय अंतिमवियप्पो वत्तव्वो । कुदो ? कसायुक्कसहिदीए बज्झमाणाए णवु सयवेद- अरदि-सोग-भय-दुगु छाणं णियमेण तत्थ बंधे संते सगुक्कसहिदीदो समयूणाबाहाकंडएणूणस्सेव द्विदिबंधस्वभादो । * एवं एवं सयवेदस्स । १७८२. जहा अरदि-सोगाणं इत्थवेदुक्कस्स द्विदिपडिबद्धाणं परूवणा कदा तहा 'सयवेदस्स व परूवणा कायव्वाः समयूणमादिं काढूण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडी पलिदो ० असंखे० भागेण ऊणाओ त्ति एदेहि सष्णियासवियहि अवसादो | एत्थतणविसेसपदुष्पायणद्वमुत्तरमुत्तं भणदि * वरि पियमा अणुक्कस्सा | आगे के समय में अरति और शोककी बन्धुच्छिति होकर हास्य और रतिके बन्धको प्राप्त होनेपर अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है, क्योंकि उस समय पतद्ग्रहपना नहीं रहने से उनमें कषायकी स्थितिका संक्रमण नहीं होता है । इसी प्रकार आगे भी एक समय कम एक वलिसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । शेष मागेकी प्ररूपणा, जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति से सम्बन्ध रखनेवाली हास्य और रतिकी की है उस प्रकार करनी चाहिये । किन्तु यहां पर कषायकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धके साथ रति और शोकका एक समय कम आबाधाकाण्डकसे न्यून बीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिप्रमाण बन्ध कराके तथा प्रतिभग्न कालके प्रथम समय में अरति और शोककी बन्धव्युच्छित्ति कराके और एक आवलि प्रमाण स्थितियों को गलाकर अन्तिम विकल्प कहना चाहिये, क्योंकि कषायकी उत्कृष्ट स्थितिके बम्ध के समय नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध होता है पर वह स्थितिबन्ध अपनी उत्कृष्ट स्थिति से एक समय कम आबाधाकाण्डकसे न्यून तक ही होता है । * इसी प्रकार नपुंसकवेदकी प्ररूपणा करनी चाहिए । ६७८२. जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ अरति और शोककी प्ररूपणा की है उसी प्रकार नपुंसक वेदकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति तक होने वाले सन्निकर्ष के भेदोंकी अपेक्षा रति और शोकके कथनसे नपुंसकवेदके कथनमें कोई भेद नहीं है । अब इस विषय में विशेषता बतलाने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के समय नपुंसक वेदकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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