Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो मुक्कस्सहिदिबंधे संते वि एदासि पयडीणमुक्कस्सहिदिसंतकम्भ भयणिज्ज; बंधावलियभंतरे बद्धकसायउक्कस्सहिदीए संकमाभावादो। बंधावलियादिक्कतकसायसमयपबद्धक्कस्सहिदीए एदासिं पयडीणमुवरि संकंतावत्थाए जदि मिच्छत्त क्कस्स हिदिबंधो होदि तो मिच्छत्त ककस्सहिदिविहत्तीए सह एदासिं पयडीणमक्कस्सहिदिविहत्ती होदि। एवं होदि त्ति काऊण जइवसहभडारएण उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा होदि त्ति भणिदं ?)
उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव वीससागरोवमकोडाकोडीमो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणामो त्ति ।
७५६. एत्थ ताव णवुसयवेदमस्सिदण सुत्तत्थविवरणं कस्सामो । तं जहामिच्छत्तु क्कस्सद्विदि बंधिय सोलसकसायाणं समयणुक्कस्सहिदि बंधिय पुणो बंधावलियादिक्कतकसायद्विदीए णवुसयवेदसरूवेण संकामिज्जमाणावत्थाए जदि मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिबंधो होदि तो णवुसयवेदस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती; सगोघुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण समयणत्तादो । पुणो अण्णण जीवेण कसायाणं दुसमऊणक्कस्सहिदि बंधिय बंधावलियादिक्कंतकसायहिदीए णवुसयवेदसरूवेण संकामिदार तत्थ मिच्छत्त क्कस्सहिदिबंधे संते णवुसयवेदस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती, सगोघुक्कस्सं पेक्खिदण दुसमयूणत्तादो। एवमेदेण कमेण सोलसकसायहिदि तिसमयूणादिसरूवेण बंधाविय बंधावलियादिक्कतकसायहिदी णवुसयवेदसरूवेण संकाभिय संकंतसमए मिच्छत्त कस्सहिदि सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर भी इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म भजनीय है, क्योंकि बंधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धावलीके भीतर संक्रमण नहीं होता है। तथा बन्धावलिसे रहित कषायके समयप्रबद्धोंकी उत्कृष्ट स्थितिका इन प्रकृतियोंमें संक्रमण होते समय यदि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके साथ इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है ऐसा समझ कर यतिवृषभ भट्टारकने 'उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट' यह कहा है।
__* अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है।
...६ ७४६. यहां पहले नपुंसकवेदका आश्रय लेकर सूत्रके अर्थका खुलासा करते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और सोलह कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके तदनन्तर बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण होनेके.समय यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है तो नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि उस समय अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए वह एक समय कम होती है। पुनः अन्य जीवके कषायकी दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर बंधावलिसे रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण होते समय यदि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तो उस समय उसके नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि अपनी ओघ उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए वह दो समय कम होती है। इस प्रकार इसी क्रमसे सोलह कषायोंकी स्थितिका तीन समय कम आदिरूपसे बन्ध कराके और बन्धावलीसे रहित कषायकी स्थितिका
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