Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 457
________________ ४३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ माणे एदाए किरियाए आणेयव्यो । तं जहा–मिच्छत्तु कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्गकालमवहिदमच्छिय सम्मत्तकालं समयाहियं मिच्छत्तकालमवहिदमच्छिय सकिलेसं पूरेदणुक्कस्सहिदीए पबद्धाए अपुणरुनवियप्पो होदि । पुणो जहा पडिहग्गकालं वडाविय सम्मत्तहिदी अोदारिदा तहा सम्मत्तकालं वडाविय ओदारेदव्या जाव णिव्वियप्पधुवहिदि त्ति । पुणो उव्वेल्लणमस्सिदूण ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एया हिदी दुसमयकालपमाणा चेहिदा ति । एवं णीदे तदियपरूवणा समचा होदि ३।। ७२१. चउत्थपरूवणा संपहि वुच्चदे । तं जहा-पुणरुत्तवियप्पं पुव्वविहाणेण भणिदण मिच्छत्त कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्ग-सम्मत्तद्धाओ अवहिदाओ अच्छिय समयाहियमिच्छत्तद्धमच्छिदेण आऊरिदुक्कस्ससंकिलेसेण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पवद्धाए अपुणरुत्तवियप्पो होदि । एवं मिच्छत्तद्धाए दुसमउत्तरादिकमेण वड्डाविय ओदारिदे चउत्थपरूवणा समप्पदि ४ । एवमेगसंजोगपरूवणा गदा । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके मिथ्यात्वसे च्युत होनेके अवस्थित कालतक मिथ्यात्वमें रह कर फिर सम्यक्त्वके एक समय अधिक अवस्थित कालतक सम्यक्त्वके साथ रह कर फिर मिथ्यात्वके अवस्थित कालतक मिथ्यात्वमें रह कर और उसी समय उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कष्ट स्थितिके बन्धके समय सन्निकर्षका अपुनरुक्त विकल्प होता है । तदनन्तर पहले जिस प्रकार मिथ्यात्वसे पुनः च्युत होनेके कालको बढ़ाकर सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाया था उसी प्रकार यहां पर वेदकसम्यक्त्वके कालको बढ़ाकर निर्विकल्प ध्र वस्थितिके प्राप्त होने तक सम्यक्त्वको स्थितिको घटाना चाहिये । पुनः उद्वेलनाका आश्रय लेकर सम्यक्त्वकी दो समय काल प्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होनेतक उसकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थिति घटाते हुए ले जाने पर तीसरी प्ररूपणा समाप्त होती है। ६७२१. अब चौथी प्ररूपणाको कहते हैं जो इस प्रकार है-पहले पूर्वोक्त विधिसे पुनरुक्त विकल्पको कह ले। फिर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके फिर मिथ्यात्वसे पुनः च्युत होनेके अवस्थित कालतक और सम्यक्त्व के अवस्थित काल तह मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमें रहकर फिर जो मिथ्यात्वके एक समय अधिक अवस्थित काल तक मिथ्यात्वमें रह कर और उत्कृष्ट संक्लेशकी पूति करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक समय सन्निकर्षका अपुनरुक्त विकल्प होता है। इस प्रकार मिथ्यात्वके कालको दो समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर चौथी प्ररूपणा समाप्त होती है। विशेषार्थ-दूसरी प्ररूपणामें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके और प्रतिभग्नकालमें एक-एक समय बढ़ाकर संक्रमणसे प्राप्त सम्यक्त्वकी स्थितिमें एक-एक समय कम किया गया है। तथा वेदक सम्यक्त्व काल और संक्लेश पूरण कालको अवस्थित रखा है। पर जब प्रतिभग्नकालमें एक-एक समय बढ़ाते हुए उत्कृष्ट प्रतिभन्नकाल प्रात हो गया तब उत्कृष्ट प्रतिभग्नकालमेंसे जघन्य प्रतिभन्न कालको घटाकर जो शेष बचा उससे न्यून मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराया गया और पुनः जघन्य प्रतिभन्न काल में एक-एक समय बढ़ाते हुए संक्रमणसे प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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