Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 438
________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियअंतर ४१६ एगस०, उक्क. वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो। ६६६४ एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० अज. पत्थि अंतरं । सम्मत्त०-सम्मामि० पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो। एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-सुहुमपुढवि०-मुहुमपुढवि०पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०-बादराउ अपज्ज-सुहुमआउ०-सुहुमाउ०पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज०-सुहुमतेउ०-मुहुमतेउ०पज्जत्तापज्जत्त-वाउ०--बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्रेयअपज्ज०-वणप्फदि-णिगोदबादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-कम्मइय० अणाहारित्ति । णवरिपच्छिमदोपदेसु सम्मत्त० जह० तिरिक्खोघं । सम्म सम्मामि० अज० अणुक्कस्सभंगो। पंचकाय०वादरपज्ज. पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो। जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल क्रमशः वर्षपृथक्त्व और पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-अनुदिश आदिमें अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता है और अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना नहीं होती है अतः इनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में अधिकसे अधिक पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण काल तक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता है और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती है इसलिये इनमें उक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यक संख्यातवें भागप्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है।। ६६६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सालह कषाय और नौ नोकषायोंकी जवन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर काल नहीं है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्ष पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग हे । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म ज जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त. अग्निकायिक. बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सुक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर वनस्पतिकायिक, बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगाद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगाद अपर्याप्त, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु अन्तिम दो पदोंमें इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर काल सामान्य तियंचोंके समान है और सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजवन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है । पांचों स्थावरकाय बादर पर्याप्त जावोंमें पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान भंग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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