Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा. २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियकालो
३६६ ....६६६५. सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दुगुंछ, उक्कभंगो । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंता० चउक्क०-सत्तणोक० ज० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । अजह० सव्वद्धा ।
६६६६. तिरिक्ख० मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दुगुंछ ज० अज़. सव्वद्धा । चूर्णिसूत्र, वप्पदेवकी लिखी हुई उच्चारणा और वीरसेन स्वामीके द्वारा लिखी गई उच्चारणा इनमेंसे प्रारम्भकी दो पोथियोंमें ओघसे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त निबद्ध है किन्तु वीरसेन स्वामीके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें ओघसे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय निबद्ध है और यहां ओघके अनुसार कथन किया जा रहा है, अतएव द्वितीयादि नरकोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके कालको श्रोधके समान कहने में कोई बाधा नहीं आती है। अब प्रश्न यह होता है कि आखिर इस मतभेदका कारण क्या है ? इसका यह समाधान है कि चूर्णिसूत्र और वापदेवके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल निषेकोंकी प्रधानतासे कहा है
और वीरसेन स्वामीके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल कालकी प्रधानतासे कहा है, अतः इस कथनमें मतभेद न जानकर विवक्षाभेद जानना चाहिये जिसका विस्तृत खुलासा पहले कर आये हैं । विभंगज्ञानमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग जो मिथ्यात्वके समान कहा है सो इसका कारण यह है कि विभंगज्ञानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती अतः जो उपरिम प्रैवेयकका देव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहांसे च्युत होता है उसके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है। पर ऐसे जीव संख्यात ही होंगे और यदि लगातार हों तो संख्यात समय तक ही होंगे, क्योंकि पर्याप्त मनुष्य संख्यात हैं। अतः विभंगज्ञानमें मिथ्यात्वके समान अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
६६६५. सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग उत्कृष्टके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ-सातवें नरकमें । क जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण नाना जीव क्रमशः इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त हो तो उस सब कालका जाड असंख्या श्रावलिप्रमाण होता है जो असंख्यात आवलियां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। सातवें नरकमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल भी इतना ही है अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके कालको इनकी उत्कृष्ट स्थितिके कालके समान कहा । किन्तु सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अब यदि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण नाना जीव क्रमशः इनकी जघन्य स्थितिको प्राप्त हों तो उस सब कालका जोड़ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, अतः यहां उक्त छह प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है।
६.६६६. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य
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