Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियपरिमाण
३५६ ६६०५.आदेसेण णेरइएमु सव्वपयडि. उक्क०-अणुक्क० केत्ति० १ असंखेज्जा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकाय-सब्बतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्विय०-वेउब्धियमिस्स-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०-आभिणि०-सुद०-ओहि०-संजदासजद०-चक्खु०ओहिदंस०-तिण्णिले०-सम्मादि०-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति ।
६०६. मणुसगईए मणुस. उक० केत्ति० १ संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति ? असंखेज्जा । एवमाणदादि जाव अबराइद०-खइियदिहि त्ति । मणुसपज्ज०-मणुसिणी० सव्वपयडीणमुक्क०-अणुक्क० केत्ति ? संखेज्जा । एवं सबह-आहार०-आहारमिस्स० अवगद०-अकसा०-मणपज्ज-संजद०-सामाइय-छेदो० परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद।
एवमुक्कस्सो परिमाणाणुगमो समत्तो। १६०५ आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कुष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं । असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतिथंच, मनुष्यअपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके, देव सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सभी चार स्थावरकाय, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
१६०६. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकके देव और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिये । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
.. विशेषार्थ-गुणस्थान अप्रतिपन्न सभी संसारी जीव छब्बीस प्रकृातयोंकी सत्तावाले हैं। किन्तु इनमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामवाले जीव थोड़े होते हैं, अतः आपसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्त कहे । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता उपशमसम्यग्दृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पाई जाती है या जो इनसे च्युत हुए हैं उनके पाई जाती है। उसमें भी मिथ्यात्वमें इनका संचयकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीवोकी सामान्यसे संख्या असंख्यात ही होगी। और इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंम भी प्रत्यककी संख्या असंख्यात बन जाती है। मागणास्थानोंमें राशियां तीन भागोंमें बटी हुई हैं कुछ मागणाएं अनन्त संख्यावाली, कुछ मार्गणाएं असंख्यात संख्यावाली और कुछ मार्गणाएं संख्यात संख्यावाली हैं। उनमें जो अनन्त संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें ओघके समान ब्यवस्था बन जाती है। जो असंख्यात संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कुष्ट स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात ही प्राप्त होता है। किन्तु इनमें मनुष्यगति आदि कुछ
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