Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ । विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियभागाभागो एवं किण्ह०-णील-काउलेस्से त्ति । एइंदिय० णारयभंगो । एवं वणप्फदि०-णिगोदकम्मइय०-अणाहारित्ति । ओरालियमिस्स०तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु० मिच्छत्तभंगो। मदि-सुदअण्णा०-मिच्छादि० असण्णि त्ति । असंजद. तिरिक्खोघं । णवरिमिच्छत्त० ओघं । अभव० छव्वीसपयडीणं ओरालियमिस्सभंगो।
एवं भागाभागाणुगमो समत्तो । और कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । एकेन्द्रियोंमें नारकियोंके समान भंग हैं । इसी प्रकार सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद जीव, कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंके जानना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सामान्य तिथंचोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यारष्टि और असंनियोंके जानना चाहिये। असंयतों में सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायवाले जीव अनन्त हैं। किन्तु इनमें ओघसे जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त हैं, अतः भागाभागकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीव अनन्तवें भाग प्राप्त होते हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त बहुभाग प्राप्त होते हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त । फिर भी भागाभागकी अपेक्षा इनका भी वही क्रम बन जाता है जो पूर्वमें मिथ्यात्व आदिकी अपेक्षा बतलाया है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्थ्यिात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात हैं किन्तु इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवाले असंख्यात हैं तथा दोनोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं। अतः यहां उत्कृष्ट के समान यह भागाभाग बन जाता हैं कि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण और अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। मूलमें काययोगी आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघ प्ररूपणा घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके भागाभागको जो उत्कृष्टके समान कहा उसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए । तथा सब पंचेन्द्रियोंसे लेकर संज्ञी तक और जितनीमार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना यह जो कहा है सो इसका यह तात्पर्य नहीं कि इनमें नारकियोंके समान भागाभाग होता है किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि इन मार्गणाओंमें जिस प्रकार उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा भागाभाग कहा है उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी भागाभाग कहना चाहिये, क्योंकि इन मार्गणाओंमें बहुतसी मागणाएं अनन्त संख्यावाली हैं, बहुतसी असंख्यात संख्यावाली हैं तथा बहुतसी संख्यात संख्यातवाली हैं अतः इन सबमें नारकियोंके समान भागाभाग बन भी नहीं सकता। तथा इन मार्गणाओंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंकी संख्याको देखनेसे भी वही अभिप्राय फलित होता है जो हमने दिया है। तिर्यंचगतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नारकियोंके समान है सो इसका यह अभिप्राय है कि जिस
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