Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयघवलासहिदे कंसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ता ३
९. ६०४. परिमाणं दुविहं - जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसोघेण आदेसेण य । श्रघेण छव्वीसपयडीणमुक्क० केत्तिया ? असंखेज्जा । अणुक • केत्तिया ? अनंता । सम्पत्त० सम्मामि० उक्क० - अणुक्क० केत्ति ० १ असंखेज्जा । एवं. तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-वणप्फदि- णिगोद-कायजोगि ओरालिय० - ओरालियमिस्स-कम्मइय० - णवुस ० चत्तारिक० -मदि मुदण्णा० असंजद० - अचक्खु ० - तिण्णिले ० - भवसि ०मिच्छादि ० - असणि० - आहारि अणाहारि ति । एवमभवसि ० । णवरि सम्म०- - सम्मामि० णत्थि ।
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प्रकार नारकियों में सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा अजघन्य स्थितिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण और जघन्य स्थितिवाले असंख्यात एक भागप्रमाण हैं उसी प्रकार तिर्यंचों में जानना चाहिये । यद्यपि तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारकी स्थितिवाले जीव अनन्त हैं फिर भी जघन्य स्थितिवालोंसे अजघन्य स्थितिवाले जीव श्रसंख्यातगुणे होनेसे उक्त व्यवस्था बन जाती है। तथा तिर्यंचोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायवाले जीवों में जघन्य स्थितिवालोंसे अजघन्य स्थितिवाले अनन्तगुणे हैं, अतः इनके कथनको ओघके समान कहा । कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें तिर्यंचोंके समान व्यवस्था बन जाती है, अतः इनके भागाभागको तियँचोंके समान कहा । एकेन्द्रियोंमें भागाभाग संबन्धी कुल व्यवस्था नारकियों के भागाभाग के समान बनती है, अतः इनके भागाभागको नारकियोंके भागाभाग के समान कहा । वनस्पति आदि और जितनी मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें भी नारकियों के समान भागाभाग जानना । औदारिक मिश्रकाययोग में यद्यपि भागाभाग सामान्य तिर्यंचोंके समान है पर अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका भागाभाग मिथ्यात्वकी tar और अन्य स्थितिके भागाभाग के समान है । अथात् तिर्यंचोंमें जिस प्रकार मिध्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग कहा है उसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगमें अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा जानना । मूलमें जो मत्यज्ञानी आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी औदारिकमिश्र काययोगके समान भागाभाग जानना चाहिए । असंयतों के सामान्य तिर्यंचों के समान जानना | किन्तु इनके मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका भागाभाग ओघके समान कहना चाहिये | अभव्योंके छब्बीस प्रकृतियों का सत्व है, अतः इनके छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग श्रदारिक मिश्रकाययोग के समान जानना चाहिए ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ :
$ ६०४. परिमाण दो प्रकारका है- - जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहाँ उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । घकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनुत्कुष्टस्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यंच, सब एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककायोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जोवोंके जानना चाहिये। इसी प्रकार अभव्योंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं ।
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