Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ $ ५५०. इत्थि० पंचिंदियभंगो । णवरि सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसृणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पणवण्ण पलिदोवमाणि देसूणाणि। णवुसओघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अणुक्क० [उक्क० ] तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि ।
५५१. मदि०मुदअण्णा० ओघं । णवरि सम्मत-सम्मामि० उक्क० अणक्कर पत्थि अंतरं । अणंताण०चउक्क० बारसकसायभंगो। विहंग. सत्तमपुढविभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० अणक० णत्थि अंतरं । अणंताण चउक्क. बारसकसायभंगो । असंजद णवुस भंगो । सम्भव नहीं।
६५५०. स्त्रीवेदवालों में पंचेन्द्रियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमहतं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है। नपुंसकवेदमें ओघके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदीकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम सौ पल्य पृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होता है। तथा स्त्रीवेदी जीव सम्यक्त्वके साथ कुछकम पचवन पल्य तक रह सकता है और कुछकम इतने कालतक उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना पाई जा सकती है, अतः इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्य प्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है। नपुंसकवेदमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तर कालको छोड़ कर शेष सब कथन ओघके समान बन जाता है। किन्तु नपुंसकवेदी लगातार कुछ कम तेतीस सागर तक ही सम्यग्दर्शनके साथ रह सकता है अतः इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण प्राप्त होता है।
६५५१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान अन्तर है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरका भंग बारह कषायोंके समान है। विभंगज्ञानियों में सातवीं पृथिवीके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिके अन्तरका भंग बारह कषायोंके समान है। असंयतोंमें नपुंसकों के समान भंग है।
विशेषार्थ-मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदेलना ही होती जाती है। अतः इनके इन दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार विभंगज्ञानी जीवों के भी उक्त दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं पाया जायगा। असंयतोमें नपुंसकवेद प्रधान है, अतः असंयतोंका कथन नपुंसकों के समान कहा।
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