Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गयधवलासहिदे कसायपाहुरे
[द्विदिविहती ३ ६५५३. अभव० मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० मोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो। मिच्छादि० मदि०भंगो। आहार० मिच्छत्त-बारसक० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क. सगहिदी देसूणा। अणुक्क. ओघं। सम्मत्त०-सम्मामि० पंचिंदियभंगो । अणंताणु० चउक्क० उक्क० मिच्छत्तभंगो । अणुक्क० पंचिंदियभंगो । णवणोक० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघं ।
एवमुक्कस्संतराणुगमो समत्तो । * एत्तो जहणणयंतरं।
५५४. सुगमं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल उद्वेलनाकी अपेक्षा
और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल विसंयोजनाकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है। शुक्ल लेश्यामें सम्यक्त्व. सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर नौवें अवेयकके समान घटित कर लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है ।
६५५३. अभव्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिके अन्तरका भंग मिथ्यात्वके समान है। मिथ्यादृष्टियोंमें सभी प्रेकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तर का भंग मत्यज्ञानियोंके समान है। आहारक जीवों में मिथ्यात्व और बारह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरका भंग मिथ्यात्वके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर पंचेन्द्रियोंके समान है । नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है।
विशेषार्थ-अभव्योंके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती, अतः इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल मिथ्यात्वके समान बन जाता है। आहारकका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण है, अतः इनमें मिथ्यात्व. सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम उक्त काल प्रमाण बन जाता है। यहाँ जो लगातार आहारक होनेका उत्कृष्ट काल बतलाया है सो वह पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियके पश्चात् चौइन्द्रिय और चौइन्द्रियके पश्चात् तेइन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय जीव जितने काल तक लगातार आहारक होते रहते हैं उन सब आहारक कालोंको जोड़ कर बतलाया है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल पंचेन्द्रियोंमें ही प्राप्त हो सकता है अन्यत्र नहीं, अतः आहारकके इनके अन्तर कालको पंचेन्द्रियोंके समान कहा । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य अन्तरका प्रकरण है । ६५५४. यह सूत्र सरल है।
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