Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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३४४ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे
[छिदिविहत्ती ५६९, इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ज० अज. पत्थि अंतरं । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं । अज० अणुक्क भंगो। सम्मामि० ज० ज० अंतोमु । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० ज० सम्मामिच्छत्तभंगो । अज० ज० अंतोमु०, उक्क. पणवण्णपलिदो० देसूणाणि ।
५७०. णवु'स० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० ज० अज० पत्थि अंतरं । सेसमोघं । णवरि अणंताणु० चउक० अज० ज० अंतोम०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसूणाणि । एवमसंजद० । णवरि बारसक०-णवणोक० तिरिक्खभंगो। चत्तारिक. मणजोगिभंगो।
६ ५७१. मदि-सुदअण्णा० तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० ज० अज० णत्थि अंतरं । अणंताणु चउक्क० मिच्छत्तभंगो । एवमभव०-मिच्छा। इनमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। इसी प्रकार उक्त योगोंमेंसे किसी एक योग के रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका दो बार प्राप्त होना सम्भव नहीं, अतः इनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अनन्तर समयमें या अन्तर्मुहूर्तके बाद विवक्षित योगके रहते हुए उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव है अतः इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा । औदारिकमिश्रकाययोग में सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रियके एक बार ही प्राप्त होती है, अतः उसका अन्तरकाल नहीं है। किन्तु इस जघन्य स्थितिके कारण अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय बन जाता है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्रमाण घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
५६६. स्त्रीवेदवालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्यस्थितिके अन्तरका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है ।
६५७०. नपुंसकवेदवालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तम हर्त है और उत्कृष्ट अन्तर का कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार असंयतोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग तियचोंके समान है। चारों कषायवालोंका भंग मनोयोगियोंके समान है। '
६५७१, मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंका भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
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