Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
२५८
जयघवला सहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविही ३
जहणडिदिसा मित्तं किण्ण दिज्जदि ? ग, तिरिक्ख गइ पडिवक्खबंगद्धा हिंतो गिरयगइपडिवक्खबंधगद्वाणं बहुवत्तादो । तेसिं बहुअतं कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चेव जहण्णसामित्तच्चरणादो । एवं पढमपुढवि - देव० - भवण० - वाण० देवे त्ति । णवरि भवण ०वाण० सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो ।
* एवं सेसासु गदीसु अणुमग्गिदव्वं ।
$ ४५६. एवं जइवसहाइरिए सूचिदअत्थस्स उच्चारणाइरियवक्खाणं वत्तइसाम । घोण च चुण्णिसुत्रेण परुविदत्तादो भेदाभावादो च ।
४५७ विदियादि जाव छट्टि त्तिमिच्छत्त - बारसकसाय - वणोक० ज० कस्स ? अण्णदरस्स जो उक्कस्साउद्विदीए उववण्णो अंतोमुहुत्रेण पढमसम्मत्तं पडि - वज्जिय पुणो अंतोमुहुत्रेण तारबंधिचक्कं विसंजोइय सम्मत्रेणेव अप्पप्पणो उक्करसाउ मणुपालिय चरिमसमयणिप्पिदमाणसम्मादिडी तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती । सम्मामि ० - अनंताणु०४ पिरोधं । सम्मत्तस्स सम्मामिच्छतभंगो |
नारकियों में उत्पन्न होता है उसके वहाँ उत्पन्न होने के पहले समय में ही विवक्षित प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका स्वामित्व क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि तिर्यंचगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धनकालसे नरकगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का बन्धक काल बहुत है ।
शंका - नरकगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्धकाल बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- इसी जघन्य स्वामित्वसम्बन्धी उच्चारणसे जाना जाता है ।
इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिध्यात्वके समान है । अर्थात् भवनवासी और व्यन्तर देवोंके सम्यक्त्वकी उद्व ेलनाके अन्तिम समय में उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ।
ॐ इसी प्रकार शेष गतियोंमें विचार कर समझना चाहिये ।
९ ४५६. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित अर्थका जो उच्चारणाचार्यने व्याख्यान किया है, उसे बताते हैं फिर भी यहाँ पर उच्चारणाचार्य के द्वारा कहे गये ओधका कथन नहीं करते हैं, क्योंकि उसका कथन चूर्णिसूत्र के द्वारा किया जा चुका है तथा उससे इसमें कोई भेद भी नहीं है । ६४५७. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवीतक मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो उत्कृष्ट आयुको लेकर द्वितीयादिक पृथिवियोंमें उत्पन्न हुआ है और अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी विसंयोजना करके सम्यक्त्वके साथ ही अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुका पालन करके नरकसे निकला है उस सम्यग्दृष्टिके नरकसे निकलनेके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य नारकियोंके समान है । तथा सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
J
www.jainelibrary.org