Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २९ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिटिदिकालो
२७३ मुक्कस्सहिदिविहत्तीए आदी होदि। णवुस-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं पुण तत्तो आवलियमेत्तकाले गदे उक्स्सहिदिविहत्ती होदि; कसायाणमुक्कस्सहिदीए असंकंताए एदासिमुक्कस्सत्ताभावादो । तदो सव्वेसिमुक्कस्सहिदिबंधकालं सरिसं गंतूण सोलसकसायाणमुक्कस्सडिदिबंधो थक्कदि । तदो तम्मि थक्के वि आवलियमेत्तकालं पंचणोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । पुणो इमं पच्छिमावलियं घेत्तूण पुव्वुत्तावलिऊणउकस्सहिदिबंधकालम्मि पक्विचे कसायाणमुक्कस्सहिदिकालमेत्तस्स पंचणोकसायाणमुक्कस्सा हिदिकालस्सुवलंभादो। इत्थि-पुरिस-हस्स-रदीणं पुण उक्क० जह० एगस०, उक्क० एगावलिया ; पडिहग्गावलियाए चेव एदासिमुक्कस्सहिदिदंसणादो।
४६१. मिच्छत्त-सोलकसायाणमणुक्क० जह० अंतोमुहुत्त णवणोक० जह० भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उस समय कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रारम्भ होता है और नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति इससे एक आवलि कालके जाने पर होती है, क्योंकि जबतक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका इनमें संक्रमण नहीं होता तबतक इनकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती, अतः सभीकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धकाल समान जावर सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध रुक जाता है और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके रुक जाने पर भी एक आवली कालतक पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है, अतः इस पीछेकी आवलीको ग्रहण करके इन पाँच नोकषायोंके पूर्वोक्त एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थितिबन्धकालमें मिला देने पर कषायोंके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकाल प्रमाण पांच नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिकाल हो जाता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक श्रावलि है, क्योंकि प्रतिभग्नावलिकाल में ही इनकी उत्कृष्ट स्थिति देग्ली जाती है।
विशेषार्थ-सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ नपुंसकवेद आदि पांच नोकषायोंका ही बन्ध होता है यह बात पहले ही बतला आये हैं। अब यदि किसी एक जीवने सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक किया तो उसके उत्कृष्ट स्थिति बन्धके प्रारम्भ होनेके एक आवली कालसे लेकर सोलह कषायोंकी एक आवलि कम उत्कृष्ट स्थितिका पांच नोकानायों में संक्रमण होता रहेगा। और यदि यह जीव कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बाद एक
आवलि कालतक उक्त पांच नोकषायोंका और बन्ध करता रहे तो उस समय भी कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका इनमें संक्रमण होता रहेगा, क्योंकि बन्ध हुई प्रकृतिके निषेकोंका एक आवलिके बाद अन्य प्रकृतिमें (यदि अन्य प्रकृतिका बन्ध होता हो तो) संक्रमण होता है ऐसा नियम है। इस नियमके अनुसार जो अन्तिम आवलिमें कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बँधी है उसका संक्रमण एक
आवलिके बाद पांच नोकषायोंमें एक प्रावली तक अवश्य होता रहेगा, अतः जिस प्रारम्भकी अावलीमें कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका पांच नोकषायोंमें संक्रमण नहीं हुआ था उसे कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध कालमेंसे घटा देने पर और इस अन्तिम आवलिके जोड़ देने पर पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके सत्त्व कालके समान प्राप्त हो जाता है। शेष कथन सुगम है।
$ ४६१ मिथ्यत्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
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