Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ एगसमओ, उक्क० सव्वासिमणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमुक्क० जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्क० ज० अंतोमुहुत्त, उक्क० वेछावहि-. सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं अचक्खु०-भवसि ।
६४९२. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलक०-णवणोक० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्त । णवरि इत्थि-पुरिस-हस्स-रदीणमावलिया । है तथा नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है और सभी प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जिस का प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूत है और उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है । इस प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ जो जीव उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे निवृत्त हो गया है उसे पुनः उन परिणामोंको प्राप्त करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और इस मध्यके कालमें इस जीवके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका ही बन्ध होगा, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा । यदि कोई जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर परिभ्रमण करता रहे तो वह वहां अनन्त काल तक रह सकता है और एकेन्द्रियके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता, इसलिये इसके नौ नोकषायोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जा सकती, अतः उक्त २६ प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा। जब कोई एक जीव एक एक समयके अन्तरसे क्रोधादिककी एक समय आदि कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है और उसका उसी प्रकारसे नौ नोकषायोंमें संक्रमण करता है तब नौ नोकषायोंकी अनत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। जो जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ताको प्राप्त करके अन्तमुहर्त में उनकी क्षपणा कर देता है उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होता है। तथा जो जीव उद्वेलना कालके अन्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त होता है और छ्यासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रह कर पुनः मिथ्यात्वमें , जा कर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करने लगता है तथा उद्वेलनाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः एक आवलिकम छ्यासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रहता है तथा अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है उसके सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ बत्तीस सागर पाया जाता है। चूर्णिसूत्रोंमें चारों गतियों में उत्कृष्ट स्थितिकी काल प्ररूपणा ओघके समान कही है और उच्चारणामें चारों गतियों को आदेश प्ररूपणामें ले लिया है। इसका कारण यह है कि उच्चारणामें उत्कृष्ट स्थितिके कालके साथ अनुत्कृष्ट स्थितिका काल भी सम्मिलित है, अतः यहाँ चारों गतियोंमें ओघ प्ररूपणा नहीं बनती। यही कारण है कि उच्चारणामें चारों गतियोंको आदेश प्ररूपणामें परिंगणित किया है। किन्तु उच्चारणाकी अोध प्ररूपणा अचक्षदर्शन और भव्य मार्गणामें घटित हो जाती है, अतः उच्चारणामें इनकी प्ररूपणाको अोध के समान कहा है। यद्यपि इन दोनों मार्गणाओंमें चूर्णिसूत्रोंकी अोध प्ररूपणा भी बन जाती है फिर भी चूर्णिसूत्रका 'एवं सव्वासु गदीसु' यह वचन देशामर्षक है, अतः वहां अन्य मार्गणाएं नहीं गिनाई हैं।
४६२. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी
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