Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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पा. २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिश्रद्धाच्छेदो
ॐ गदीसु अणुमग्गिदव्वं । $ ३८२. गदीसु चि देसामासियवयणं । तेण गदियादिसु चोदसमग्गणहाणेसु अणुमग्गिदव्वमिदि भणिदं होदि । एवं जइवसहाइरिएण सूचिदस्स अत्थस्स उच्चारणाइरिएण परूविदवक्रवाणं भणिस्सामो। उच्चारणोघो जइवसहोघेण समाणो चि ण तत्थ वत्तव्यमस्थि ।
$ ३८३. मणुस०-मणुसपज्ज०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-लोभकसाय-आमिणि-मुद०-ओहि०-संजद० - चक्खु०अचक्खु०-ओहिदंस०-मुक्क०-भवसिद्धि०-सम्मादिहि-सण्णि-आहारीणमोघभंगो। णवरि मणुसपज्ज० इत्थिवेद० जह० अद्धाच्छेदो पलिदो० असंखे० भागो । लोभकसाय० दोण्हं संजलणाणं जह० हिदिश्रद्धा०जहाकमेण अह वस्साणि चचारि मासा च अंतोमुहुत्त णा ।
३८४. आदेसेण णेरइएमु मिच्छत्त-बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं जहण्णहिदिविहत्ती सागरोवमसहस्सस्स सच सचभागा चत्वारि सचभागा पलिदो० संखे०भागेण ऊणा । तं जहा–मिच्छत्तस्स ताव उच्चदे। असण्णिपंचिंदिओ हदसमप्पत्तियकमेण द्विदिघादं कादूण कयजहण्णमिच्छचहिदिसंतकम्मो विग्गहगदीए णेरइएमु उववण्णो
* इसी प्रकार गतियोंमें अनुसंधान करके समझना चाहिये।
६३८२. सूत्र में आया हुआ 'गदीसु' यह वचन देशामर्षक है, इसलिये गति आदिक चौदह मार्गणास्थानोंमें अनुसन्धान करके समझना चाहिये यह उक्त सूत्रका अभिप्राय होता है। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित अर्थका उच्चारणाचार्यके द्वारा जो व्याख्यान किया गया है उसे कहेंगे। उसमें भी उच्चारणाका ओघ यतिवृषभके ओघके समान है अतः उच्चारणाके ओघका कथन नहीं करेंगे।
६३८३. उसमें भी सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तके स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है और लोभकषायवाले जीवके दो संज्वलनोंका जघन्य स्थितिकाल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष और अन्तमुहूर्तकम चार मास है।
३८४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सातों भागप्रमाण है और बारह कवाय, भय तथा जुगुप्साकी जघन्यस्थितिविभक्ति हजार सागरके सात भागोंमें से पल्यका संख्यातवाँ भग कम चार भागप्रमाण है। खुलासा इस प्रकार है। उसमें पहले मिथ्यात्वकी जयन्य स्थिति कहते हैं-जिसने हतसमुत्पत्तिकक्रमसे स्थितिघात करके मिथ्यात्वका जघन्यस्थिति सत्कर्म कर लिया
१. ११०प्रतौ असंखे. इति पाठः ।
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