Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ३६८. विहंग० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० ज० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि। सम्मत्त-सम्मामि० एइंदियभंगो । मणपज० ओघं । णवरि इत्थि०णवुस० ज० पलिदो० असंखे भागो। ___३६६. सामाइय-छेदो० ओघ । णवरि लोभसंज० ज० अंतोमुहुनं । परिहार० सम्मत्त० मिच्छत्त०-सम्मामि०-अणंताणु० ओघं । सेसाणं सोहम्मभंगो। एवं तेउ-पम्मसंजदासंजदाणं । मुहमसंप० लोभ० ज० एया हिंदी एयसमइया। सेसाणमकसाइभंगो । असंजद० तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्तस्सोधभंगो । कम नहीं होती, अत: अकाषायी जीवोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कही है । तथा अकषायी जीवोंके समान यथाख्यातसंयत जीवोंके भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति घटित कर लेनी चाहिये।
६३६८. विभंगज्ञानियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल एकेन्द्रियोंके समान है। मनःपर्ययज्ञानमें ओघके समान है। पर इतनी विशेषता है कि इसमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण है।
विशेषार्थ-विभंगज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवके पर्याप्त अवस्थामें ही होता है और पर्याप्त अवस्थामें संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवके अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे कम जघन्य स्थितिसत्त्व नहीं होता, अतः विभंगज्ञानियोंके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कही है । तथा विभंगज्ञानी भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हैं, अतः इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियों के समान दो समय कही है । यद्यपि मनःपर्ययज्ञानके रहते हुए क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति और क्षपकश्रेणी पर आरोहण बन सकता है, अतः इसके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको छोड़ कर शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान बन जाती है। किन्तु स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवके मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्ति सम्भव नहीं, अतः जिस प्रकार पुरुषवेदी जीवके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार मनःपर्यायज्ञानीके भी जानना । . ६३६६. सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें ओघके समान है। पर इतनी विशेषता है कि इनके लोभसंज्वलनका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। परिहारविशुद्धिसंयतके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओघके समान है। तथा शेषका सौधर्मके समान है। इसी प्रकार पीत, पद्म लेश्यावाले और संयतासंयतोंके जानना चाहिये। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंके लोभकी एक स्थितिका जघन्य काल एक समय है। तथा शेषका अकषायी जीवोंके समान भंग है। असंयतोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है । पर इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्वका ओघके समान भंग है ।
विशेषार्थ-सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयमके रहते हुए भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा होती है, अतः इनके संज्वलन लोभको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान कही है। किन्तु ये दोनों संयम नौवें गुणस्थान तक ही पाये जाते हैं
और क्षपक नौवें गुणस्थानके अन्त में लोभकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, अतः इन दोनों संयमोंमें लोभकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त कही है ।
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