Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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२२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह• अजह० किं सादि०४१ सादिओ अद्ध वो। [ अणंताणुबंधिचउक्क० उक्क० अणुक० जह० किं सादि०४ ? सादि अद्ध वं] अज. किं सादि०४ ? सादिओ प्रणादिलो वा धुवो अद्ध वो वा । एवमचक्खु० भवसि० । णवरि भवसिद्धिएसु धुवं णत्थि । सेसाणं मग्गणाणं उक्क अणुक्क० जह० अजह० किं. सादि०४ ? सादिया अद्ध वा वा ।
अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्योंके जानना चाहिये। पर इतनी विशेषता है कि भव्यों के ध्रुवभंग नहीं होता है । शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है।
विशेषार्थ-मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति कादाचित्क है तथा जघन्य स्थिति अपने अपने क्षय कालके अन्तिम समयमें ही प्राप्त होती है, अतः ये तीनों स्थितियाँ सादि और अध्रव हैं। किन्तु सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके विषयमें विशेषता है जिसका खुलासा निम्न प्रकार है-यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जघन्य स्थितिको छोड़कर शेष सब स्थितिविकल्प अजघन्य कहे जाते हैं, क्योंकि जघन्यके प्रतिषेध मुखसे अजघन्यमें जघन्यको छोड़कर शेष सबका ग्रहण हो जाता है। प्रकृतियोंके विषयमें दूसरी यह बात ज्ञातव्य है कि मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंमेंसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका क्षय होनेके पहले तक निरन्तर सत्त्व पाया जाता है और क्षय होनेके बाद पुनः इनका बन्ध नहीं होता । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अनादि मिथ्यादृष्टिके तो निरन्तर सत्त्व है किन्तु जिसने सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है उसके इसकी विसंयोजना भी हो जाती है और ऐसा जीव जब मिथ्यात्वमें आता है तो पुनः उनका बन्ध होने लगता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सादि ही हैं यह स्पष्ट ही है । इन सब विशेषताओंको ध्यानमें रखकर जब इन प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके सादित्व आदिका विचार करते हैं तो मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति अनादि ध्रुव और अध्रुव प्राप्त होती है, क्योंकि अनादि कालसे इनकी अजघन्य स्थिति चली आरही है इसलिये अनादि है। तथा भव्योंकी अपेक्षा अध्रव और अभव्योंकी अपेक्षा धूव है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थिति सादि, अनादि. ध्रव
और अध्रुव चारों प्रकारकी प्राप्त होती है, क्योंकि विसंयोजनासे जघन्य स्थितिके प्राप्त होनेके पहले तक वह अनादि है । विसंयोजना के पश्चात् पुनः बन्ध होनेपर सादि है तथा अभाव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों प्रकृतियाँ मूलतः ही सादि हैं अतः इनकी अजघन्य स्थिति भी और स्थितियोंके समान सादि और अध्रव है। अचक्षदर्शनमार्गणा छद्मस्थ अवस्थाके रहने तक और भव्य मार्गणा संसार अवस्थाके रहने तक निरन्तर पाई जाती है, अतः इसमें उक्त ओघप्ररूपणा बन जाती है। किन्तु भव्योंके ध्रुव
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