Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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م عرفي مي بجمیعی می می می سیخ میعی جاتی ہے اور جی جی جی جی جی جی کی ترجیح می بی سی سی سی، حسیحی
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میں میری عمر سے میری مہر جیمی , مسیج
سے بے نیم مرعي التي هي في نوعي مي نوي في تقی می می می من در هر مر في غر مي عرعر عرعر ميمي مرمي مرمي عيج ميمر مرمر
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जयधवलासहिदे कसायपाहुढे . [हिदिविहत्ती ३ गलिदाए वि उक्कस्सहिदिविहत्तिविणासादो। अहवा उक्कस्सहिदिअद्धाछेदस्स एवं सामित्रं, सो च कालणिसंगपहाणो, तेण अणुक्कस्सहिदि बंधमाणस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती ण होदि किंतु उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सहिदि बंधमाणस्स चेवे त्ति |
* एवं सोलसकसायाणं ।
४०७. जहा मिच्छत्तस्स उक्कस्ससामित्तं परूविदं तहा सोलसकसायाणं पि परूवेदव्वं; मिच्छादिडिम्मि तिव्वसंकिलेसम्मि उक्कस्सहिदि बंधमाणम्मि चेव एदेसिमुक्कस्सहिदिविहत्तीए संभवादो । अन्तिम निषेककी अधःस्थिति गलनाके द्वारा एक स्थितिके गलित होजानेपर भी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका विनाश हो जाता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं होती है ऐसा समझना चाहिये। अथवा यह उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका स्वामित्व न होकर उत्कृष्ट स्थितिअद्धाच्छेदका स्वामित्व है और वह कालनिषेक प्रेधान होता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं होती है किन्तु उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके ही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। जी * इसी प्रकार सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये ।।
६४०७. जिस प्रकार मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है उसी प्रकार सोलह कषायोंका भी कहना चाहिये, क्योंकि तीव्र संक्लेशवाले और उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके ही इन सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति संभव है।
विशेषार्थ-चूर्णिसूत्रमें यह बतलाया है कि उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करनेवाले जीवके ही मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। इसपर शंकाकारका कहना है कि जो प्रथमादि समयोंमें उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर द्वितीयादि समयोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करने लगता है उसके उत्कृष्ट स्थितिके निषेकोंका अधःस्थिति गलन नहीं होता अतः अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय भी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे समाधान किया है। पहले समाधानका तात्पर्य यह है कि जिस अन्तिम निषेककी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति पड़ी है उस निषेककी उत्कृष्ट स्थिति संज्ञा है किन्तु द्वितीयादि समयोंमें उस निषेककी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति न रहकर एक समय, दो समय आदि रूपसे कम हो जाती है, अतः अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धके समय उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती किन्तु जिस समय उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होता है उसी समय उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस समाधानपर यह शंका होती है कि जब स्थिति निषेकप्रधान होती है और द्वितीयादि समयोंमें उत्कृष्ट स्थितिसंज्ञावाले निषेकोंका गलन ही नहीं हुआ तब अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय उत्कृष्ट स्थिति क्यों न मानी जाय ? इस शंकाका विचार करके वीरसेन स्वामी ने दूसरा समाधान किया है । उसका सार यह है कि उत्कृष्ट स्थिति कालकी प्रधानतासे कही गई है निषेकोंकी प्रधानतासे नहीं, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती, क्योंकि उस समय उत्कृष्ट काल सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरमेंसे एक, दो आदि समय कम हो जाते हैं। इसी प्रकार सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये ।
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