Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जपधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ ६३६१. मणुसिणि० सयवेद जहण्ण० पलिदो० असंखे भागो। पुरिस० जह० संखेज्जाणि वस्साणि । सेसपयडीणमोघभंगो। मणु सअपज. पंचिं०तिरि०अपज्जत्तमंगो। समान जानना। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्यके संख्यातवें भाग कम दो भागप्रमाण होती है। इसका कारण यह है कि ये दोनों ध्र घबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं । अब यदि कोई एकेन्द्रिय जीव उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उसने पहले समयमें असंज्ञीके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध किया तो उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण ही प्राप्त होगी। यदि कहा जाय कि इस जीवके उस समय सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति भय और जुगुप्सारूपसे संक्रमित हो जायगी, अतः भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति भी सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति के समान प्राप्त हो जायगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि नवीन बन्धका एक आवलिके बाद ही अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है और यह जीव एकेन्द्रिय पर्यायसे आया है, अतः इसके सोलह कषायोंकी असंज्ञीके योग्य जघन्य स्थिति उसी समय प्राप्त हुई है, अतः उसका संक्रमण नहीं हो सकता । तथा सात नोकषाय प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं अतः जो एकेन्द्रिय उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ है उसके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियोंकी जघन्य स्थितिके समान होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थिति कहते समय अपनी अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालको और घटा देना चाहिये, क्योंकि प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होते समय शेष सजातीय प्रेकृतियोंका बन्ध नहीं होता और उसके अधःस्थितिगलनारूपसे प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकाल प्रमाण निषेक गल जाते हैं। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जवन्य स्थिति सामान्य तिचोंके समान क्रमसे दो समय, एक समय और दो समय प्रमाण बन जाती है। खुलासा सामान्य नारकियोंके समान जानना । किन्तु योनिमती तियचोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता अतः वहाँ सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति एक समय नहीं बनती। अतः जिस प्रकार उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय जघन्य स्थिति कही उसी प्रकार योनिमतियोंके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कहनी चाहिये। पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़कर शेष सब कर्मोकी जघन्य स्थिति योनिमती तिथंचोंके समान बन जाती है। किन्तु अनन्ताबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति शेष बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिके समान होती है, क्योंकि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती।
३६१. मनुष्यनियोंमें नपुंसकवेदका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेदका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल संख्यात वर्ष है। तथा शेष प्रकृतियोंका ओघके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है ।
विशेषार्थ-मनुष्यनियोंके नपुसकवेद और पुरुषवेदको छोड़कर सब कर्मोंकी जघन्य स्थिति श्रोधके समान बन जाती है, क्योंकि इनके क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षपकश्रेणीकी प्राप्ति सम्भव है। किन्तु इनके क्षपकरणीमें जिस समय नपुंसकवेदकी द्वितीय स्थितिके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका पुरुषवेदमें संक्रमण होता है उस समय उसकी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति पाई जाती है, अतः इनके नपुंसक्वेदकी जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जाननी चाहिये । तथा इनके पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति संख्यात वर्ष प्रमाण होती है, क्योंकि मनुष्यनियोंके पुरुषवेदका क्षय छह नोकषायोंके साथ होता है, इसलिये जब यह जीव पुरुषवेदके साथ छह नोकषायोंके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका संक्रमण क्रोधसंज्वलनमें
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