Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
हिदिविहत्ती भुजगारे कालो
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$ १८६. सामाइय-च्छेदो० अप्पद० जह० एगसमओ, उक० goaकोडी देसूणा | असंजद ० णवंसभंगो | णवरि अप्पद० जक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो । किण्ह० - णील० काउ० भुज० - अवहि० ओघं । अप्पद० जह० एगम, उक्क० सगहिदी देसूणा । तेउ० पम्म० भुज० - वहि० सोहम्मभंगो । अप्पद० ज० एगसमझो, उक्क० सगहिदी । सुक्क० अप्प० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस साग० सादिरेयाणि । एवं खइय० वत्तव्वं ।
९ १८७. अभव००-मिच्छादि० मदिअण्णाणिभंगो । उवसम० सम्मामि० आहारमिस्सभंगो | सासण० अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० छावलियाओ । सण्णि० भुज० ज० एगसमओ उक्क० वेसमया । अप्पद ० - वडि० श्रघं । असण्णि० भुज० पंचिदियतिरिक्खभंगो । अप्पद ० - श्रवद्वि० भिंगो | श्राहारि० भुज०
१८६. सामायिकसंयत और छेदोपस्थानासंयत जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। असंयत जीवोंके नपुंसक - वेदी जीवोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । चतुदर्शनी जीवोंके त्रस पर्याप्तकों के समान जानना चाहिए । कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल
के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सौधर्म कल्पके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । शुक्ललेश्यावाले जीवों के अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - जो अनुत्तर विमानवासी एक समय कम तेतीस सागरकी आयुवाला देव च्युत होकर एक कोटि पूर्वकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और आयुके अन्तमें संयमको प्राप्त हो सिद्ध हो गया उसके नौ अन्तर्मुहूर्त कम पूर्व कोटिकालसे अधिक तेतीस सागर असंयतका उत्कृष्टकाल होता है | अतः संयत के अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर कहा । शुक्ल श्यामें दो अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागर जानना चाहिये किन्तु शुक्ललेश्या के काल में सर्वार्थसिद्धिसे पूर्व और पश्चात् भवके अन्तका और प्रथम अन्तर्मुहूर्तकाल सम्मिलित करना चाहिये । संज्ञीके भुजगारका उत्कृष्टकाल दो समय श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय से प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है ।
$ १८७. अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके मत्यज्ञानी जीवोंके समान जानना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल छह आवलीप्रमाण है । संज्ञी जीवोंके भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओधके समान है । असंज्ञी जीवोंके भुजगार स्थितित्रिभक्तिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यों के समान
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