Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
९ २६१. देसेण रइएस असंखे० भागहाणि वाणाणि णियमा अस्थि । सेसपदा भयरिज्जा । भंगा वादालीसुत्तरदुसदमेत्ता २४२ । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख - मणुस - मणुसपज ० - मणुसिणी - देव० - भवणादि जाव सहस्सार०सव्वविगलिंदिय- सव्वपंचिंदिय - बादर पुढवीपज्ज० - बादरउपज्ज० - बादरते उपज्ज०बादरवाउपज्ज०- बादरवण फदिपत्तेयपज्ज० - बादरणि गोदपदिद्विदपज्ज० - सव्वतस०पंचमण० - पंचवचि० - वेउन्विय० - इत्थि० - पुरिस ० - विहंग० - चक्खु ० - तेउ ४- पम्म०सण्णिति ।
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तिर्यंच आदि मार्गणाओंमें जो ओघके समान कथन करनेकी सूचना की है सो उसका मतलब यह है कि उन मार्गणाओं में जहां जितने सम्भव पद हैं उनमें से असंख्यात भागहानि, असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित इन तीन पदोंकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग है और शेष पद भजनीय हैं । विशेष खुलासा इस प्रकार है - मूलमें गिनाई हुई मार्गणाओंमेंसे काययोग, औदारिककाययोग, चारों कषाय, अचक्षु दर्शन, भव्य, आहारक और नपुंसक वेद ये मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें अविकल ओघ - प्ररूपणा घटित हो जाती है, अतः २४३ भंग प्राप्त होते हैं । सामान्य तिर्यंच, औदारि कमिश्नकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, असंज्ञी, अनाहारक, मिध्यादृष्टि, अभव्य और कृष्णादि तीन लेश्यावाले ये मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें असंख्यात गुणहानि नहीं पाई जाती अतः भजनीय पद चार रह जाते हैं और इसलिये इनमें ध्रुव भंगके साथ कुल भंग ८१ होते हैं । तथा इनके अतिरिक्त जो एकेन्द्रिय और उनके भेद तथा पांच स्थावर काय और उनके भेद बतलाये हैं । उनमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि के बिना एक वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित ये पांच पद ही पाये जाते हैं । सो इनमें से असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भगाऔर अवस्थित पद की अपेक्षा एक ध्रुव भंग ही प्राप्त होता है । अब भजनीय पद दो रह जाते हैं, अतः इनमें ध्रुव भंगके साथ कुल नौ भंग होते हैं ।
९ २६१. देशकी अपेक्षा नारकियों में असंख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा शेष पद भजनीय हैं। भंग दोसौ व्यालीस होते हैं । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्तक, मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीरपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये |
विशेषार्थ–नारकियोंमें असंख्यात गुणहानिको छोड़कर सात पद हैं पर उनमें असंख्यात भागहानि और अवस्थित ये दो पद ध्रुव हैं तथा शेष पांच पद भजनीय हैं, अतः यहां भी भजनीय पदोंके २४२ भंग और एक ध्रुव भंग इस प्रकार कुल २४३ भंग प्राप्त होते हैं। आगे सातों तरहके नारी आदि कुछ और मार्गणाओं में जो सामान्य नारकियोंके समान कथन करनेकी सूचना की है सो उसका यह मतलब है कि जहां जितने सम्भव पद हैं उनमें से असंख्यात भागहानि और अव स्थित इन दो पदोंकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग है और शेष पद भजनीय हैं। विशेष खुलासा इस
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