Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए वड ढीए कालो
१७७ भागो तम्हि संखेजा समया। णवरि संखे०भागहाणी. जह० एयसमो, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। मणुसअपज० असंखे०भागहाणी-अवहि. के. १ जह० एगसमओ, उक्क पलिदो० असंख०भागो। सेसपदवि० के० ? जह० एगसमो , उक० आवलि. असंखे भागो । एवं वेउब्बियमिस्स० ।
संख्यात समय काल कहना चाहिये । तथा इतनी और विशेषता है कि इनके संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्य अपर्यातकोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंके कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा शेष पवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-तिर्यंचोंका प्रमाण अनन्त है, अतः उनके सब पदोंका काल ओघके समान बन जाता है। किन्तु इनके असंख्यातगुणहानि नहीं होती, क्योंकि यह पद अनिवृत्तिक्षपकके ही पाया जाता है । औदारिकमिश्रकाययोग आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त प्ररूपणा बन जाती है अतः इनमें सब सम्भव पदोंका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान कहा। मनुष्योंके और सब पदोंका काल तो पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है, क्योंकि इनके ध्र व और अध्र व पद पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान पाये जाते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि और पाई जाती है। पर यह पद मनुष्यों के ही होता है क्योंकि अनिवृत्ति क्षपक गुणस्थान मनुष्य गतिको छोड़कर अन्य गतिवाले जीवोंके नहीं पाया जाता। अतः सामान्य मनुष्योंके इस पदका काल ओघके समान बन जाता है। पंचेन्द्रिय आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त प्ररूपणा बन जाती है अतः उनमें सम्भव सब पदोंका काल सामान्य मनुष्योंके समान कहा । मनुष्यपर्याप्त
और मनुष्यनी संख्यात होते हैं, अतः इनके संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यात गुणहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त न होकर संख्यात समय प्राप्त होता है। किन्तु उक्त दोनों मार्गणावालोंका प्रमाण संख्यात होते हुए भी इनके संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है, क्योंकि पहले एक जीवकी अपेक्षा संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण बतला आये हैं। अब यदि किसी एक पर्याप्तमनुष्य या मनुष्यनीने संख्यातभागहानिका प्रारम्भ किया और वह संख्यात भागहानिके उत्कृष्ट काल तक उसके साथ रहकर जिस समय समाप्त करता है उसी समय किसी उक्त मार्गणावाले अन्य जीवने उसका प्रारम्भ किया तो इस प्रकार निरन्तर संख्यातभागहानिकी प्रवृत्ति प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक पाई जाती है अतः उक्त मार्गणाओंमें इसका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है अतः इस मार्गणाका जो उत्कृष्ट काल है वही यहां असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट काल जानना। किन्तु अन्तरकालके बाद जब नाना जीव इस मार्गणाको प्राप्त होते हैं तब वे यदि एक समय तक असंख्यातभागहानि या अवस्थित पदके साथ रहे और दूसरे समयमें अन्य पदको प्राप्त हो गये तो इनके उक्त दो पदोंका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग यह मार्गणा भी सान्तर है, अतः यहां भी लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके समान सम्भव सब पदोंका काल बन जाता है।
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