Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपपडिहिदिअदाच्छेदो ओरालि०-वेउब्धियमि०-कम्मइय०-असण्णि-अणाहारि त्ति ।
एवमुक्कस्सहिदिअद्धाछेदो समत्तो। बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर पर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मण. काययोगी, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
निशेषार्थ- यहाँ पहले श्रोध के अनुसार जिन मार्गणाओंमें २८ प्रकृतियोंका श्रद्धाच्छेद है उनका मल में उल्लेख करके जिन मार्गणाओंमें विशेषता है उनका अलगसे निर्देश किया है। खुलासा इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह एक अन्तर्मुहूर्तके बाद ही स्थितिघात किये बिना पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो सकता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यश्च लब्ध्यपर्याप्तकके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कहा है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर जाननी चाहिये, क्योंकि जिस जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया है वह जीव जब अति लघुकालके द्वारा लौट कर मिथ्यात्वमें आता है और स्थितिघात किये बिना मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकमें उत्पन्न होता है तब उसके पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक अवस्थामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है। यहां मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर पुनः मिथ्यात्वमें आकर पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकमें उत्पन्न होने तकके कालका जोड़ अन्तमुहूर्त ही लेना चाहिये तभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उक्त प्रमाण बन सकती है। तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर घटित कर लेनी चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सोलह कषायों . की उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति संक्रमकी अपेक्षा घटित करनी चाहिये । मूलमें मनुष्य अपर्याप्तक आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार सव कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये। किन्तु सम्यग्दर्शनसे सम्बन्ध रखनेवाली आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति कहते समय वेदकसम्यक्त्वसे पुनः मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये। किन्तु वेदकसम्यक्त्वके प्राप्त होनेके पहले समयमें ही उनके सब कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । हां सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्वसे अतिशीघ्र सम्यग्मिध्यात्वको प्राप्त कराके पहले समयमें सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । आनतादि चार कल्पोंमें यदि अविरती उत्पन्न होता है तो द्रव्यलिंगी मुनि ही उत्पन्न होता है । यही बात नौ ग्रैवेयकोंकी भी है, अतः इनके सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होती। मूलमें आहारककाययोगी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होती यह स्पष्ट ही है। हां सूक्ष्मसाम्परायिक और यथाख्यातसंयतके जो उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर बतलाई है वह उपशामककी अपेक्षा जाननी चाहिये । जिसने मिथ्यात्व या सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह दूसरे समय में मर कर मूल में कही गई एकेन्द्रियादि मार्गणाओंमें उत्पन्न हो सकता है अतः उक्त मार्गणाओंमें मिथ्यात्वकी एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और सोलह कषायों की एक समय कम
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