Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसरबपाहुडे [हिदिविहत्ती तेसिमावलियूणकसायुक्कस्स हिदिदंसणादो । गवुसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंठाणमक्कस्ससंकिलेसेण बंधपाओग्गाणं सोलसकसायाणं व चत्तालीससागरोचमकोडाफोडीमेसो हिदिबंधो किरण होदि ? ण, कसायणोकसायाणं पुधभूदजादीणं हिदिभेदे संते विरोहाभावादो । इत्थि-पुरिस-हस्स-रदीणं पडिहग्गकालम्मि बज्झमाणाणं कथमावलियूणा कसायाणमकस्सहिदी होदि ? ण, पडिहग्गपढमसमए चेव बज्झमाणेसु चदुसु कम्मेसु बंधावलियादिक्कंतकसायकम्मक्खंधाणमावलियूणउक्कस्सहिदीणं संकंतिदंसणादो । एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बज्झति ? ण, साहावियादो । में संक्रान्त हो जाने पर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक प्रावली कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर देखी जाती है, अतः नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति उक्त प्रमाणा धन जाती है।
शंका–उत्कृष्ट संक्लेशसे बंधनेके योग्य जो नपुंसकवेद, परति, शोक, भय और जुगुप्सा 'प्रकृतियां हैं उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ‘सोलह कषायोंके समान पूरा चालीस कोडाकोड़ी सागर क्यों नहीं होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि कषाय और मोकषाय ये पृथक् जातिकी प्रकृतियाँ हैं, इसलिये .. इनके स्थिति भेदके रहनेमें कोई विरोध नहीं पाता है।
शंका-प्रतिभग्न कालमें बंधनेवाली स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवली कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कैसे हो सकती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, प्रतिभग्न कालके पहले समयमें ही बंधनेवाली इन चार प्रकृतियोंमें बन्धावलिके सिवा शेष कर्मस्कन्धोंकी एक आवली कम उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण देखा जाता है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवली कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण हो जाती है ।
शंका ये स्त्रीवेद आदि चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेशसे क्यों नहीं बंधते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशसे नहीं बंधनेका इनका स्वभाव है।
विशेषार्थ-बन्धसे स्त्रीवेदकी १५. कोड़ाकोड़ी सागर, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी २० कोडाकोड़ी सागर तथा हास्य, रति और पुरुषवेदकी १० कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है किन्तु जब कषायों की उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकषायरूपसे संक्रमण होता है तब इनकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलिकम ४० कोड़ाकोड़ी सागर हो जाती है। तत्काल बंधे हुए कर्मका एक आवलि काल तक संक्रमण नहीं होता अतः ४० कोड़ाकोड़ी सागरमें से एक
आवलि कम कर दी गई है ! किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट संक्लेशसे होनेवाले कषायकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन पांच प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है, अतः बन्धकालके भीतर ही इनमें एक प्रावलिके पश्चात् कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है । तथा स्त्रीचेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे नहीं होता अतः कषायकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धके उपरत होने पर एक आवलिके पश्चात् इनमें कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण होता है क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों के निवृत्त होने के पहले समयसे ही इन स्त्रीवेद आदि चार प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है और इसलिये एक
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