Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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हिादावह
गा. २२) द्विदिविहत्तीए भुजगारे पोसणाणुगमो
११७ उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति । णवरि बादरवाउ०पज्ज० लोग० संखे०भागो।
$ २०५. पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-मुहुमपुढवि०-सुहुमपुढवि०पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरा उ०-बादराउ अपज्जा-सुहमआउ०-सुहुमाउ०पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउ० अपज्ज०-सहुमतेउ०-सुहुमतेउ०पज्जत्तापज्जत्त-वाउ० बादरवाउअपज्ज-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपचेयअपज्ज०भुज० अप्पद० अवहि० के० खेचे ? सव्वलोगे।.
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। २०६. पोसणाणुणमेण दुविहो णिद्दे सो ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका वर्तमान क्षेत्र लोकका संख्यातवाँ भाग है।
२०. पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म प्रथिवीकायिक पर्याप्त, सक्ष्म प्रथिवीकायिक अपर्याप्त. जलकायिक, वादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्मजलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, बादरबनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं। सर्व लोकमें रहते हैं।
विशेषार्थ-अोघसे तीनों स्थितिवाले जीव अनन्त हैं अतः उनका क्षेत्र सब लोक बन जाता है । पर मार्गणाओंकी अपेक्षा क्षेत्रका विचार करनेपर दो विकल्प प्राप्त होते हैं। जिन मार्गणाओंमें तीनों स्थितिवालोंका प्रमाण अनन्त है उनका तो सब लोक क्षेत्र है ही। साथ ही पृथिवीकायिक आदि असंख्यात संख्यावाली कुछ ऐसी मार्गणाएं है जिनमें भी तीनों स्थितिवालोंका क्षेत्र सब लोक है। तथा इनके अतिरिक्त शेष जितनी मागणाएं हैं उनमें अपनी अपनी सम्भव भुजगार आदि स्थितियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही क्षेत्र जानना चाहिये। किन्तु वायुकायिक पर्याप्त जीव इसके अपवाद हैं क्योंकि उनके तीनों स्थितियोंकी अपेक्षा लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि मार्गणाओंकी अपेक्षा जिस मार्गणाका जो क्षेत्र हैं वही यहां अपनी अपनी सम्भव स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ६ २०६. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश
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