Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा• २२.] हिदिविहत्तीए षड्ढीए अंतर
१५३ $ २७७. एइंदिएमु असंखे भागवडी० हाणी० अवहि. जह० एयसमो, उक्क० अंतोमु० । दो हाणी० णत्थि अंतरं । एवं पंचकायाणं । विगलिंदिएसु असंखे०भागवडी हाणी अवहि० जह० एयसमओ, उक० अंतोमु० । संखे०भागवडी. संखे०भागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमहुत्त । संखे० गुणहाणी० पत्थि अंतरं । प्रारम्भमें उक्त तीन वृद्धियां, संख्यात गुणहानि और अवस्थित स्थितिका अन्तर करके उक्त पूर्व कोटि प्रथक्त्व काल तक असंख्यात भागहानिके साथ रहा। और संज्ञियोमें उत्पन्न होकर पुनः तीन वृद्धियां, संख्यातगुण हानि और अवस्थित स्थिति प्राप्त हो गई तब जाकर इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण ही प्राप्त होता है । जिस तिथंचने प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय संख्यातभागहानि की । पुनः मिथ्यात्वमें जाकर और अन्तमुहूर्त काल के बाद जो तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ और जीवनमें अन्तमुहूर्त कालके शेष रह जाने पर जिसने पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके संख्यात भागहानि की उसके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य प्रमाण पाया जाता है। मनुष्यत्रिकके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल तियेच त्रिकके समान ही है पर इनके भी असंख्यात भागवृद्धि आदिका उत्कृष्ट अन्तरकाल तत्प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि तिर्यंचत्रिकके समान यहां भी वही बाधा आती है । अब यदि कहा जाय कि जिस प्रकार तिथंच त्रिकके इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण बतला आये हैं उसी प्रकार मनुष्यों के भी घटित हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनुष्योंमें असंज्ञी न होनेके कारण सम्यक्त्व की अपेक्षा भुजगार और अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण बतलाया है अतः यहां असंख्यात भागवृद्धि आदिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण ही कहा है। जो पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त स्थितिघात करता है उसके एक काण्डककी अन्तिम कालिके पतनके समय संख्यातभागहानि या संख्यातगुणहानि हुई । पुनः अन्तर्मुहूर्तकालके बाद दूसरे काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यात भागहानि या संख्यात गुणहानि होगी अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें इनका जघग्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । किन्तु बस अपर्याप्तकोंमें विकलत्रय भी सम्मिलित हैं, अतः इनके संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर काल एक समय भी बन जाता है । देवोंमें बारहवें स्वर्गके बाद असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात गुणहानि और अवस्थित स्थिति नहीं पाई जाती अतः इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा । तथा नौ ग्रैवेयकके देव सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके पुनः मिथ्यात्वमें और मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमें जा सकते हैं और इस प्रकार उनके पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व और उसकी विसंयोजना हो सकती है, अतः सामान्य देवोंके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा । शेष कथन सुगम है।
६२७७. एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्महूर्त है। तथा दो हानियोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये। विकलेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तमुहूर्त है। संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा संख्यात गुणहानिका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जो पल्यके असंख्यातवें
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