Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए पदसिक्लेवे सामित्त
एवं समुक्त्तिणाणुगमो समत्तो । १६ २३०. सामित्ताणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो च । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिसो—ोघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरस्स जो चदुढाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिहिदि बंधंतो अच्छिदो हिदिवंधद्धाए पुण्णाए जेण उक्कस्सहिदिसंकिलेसं गदेण उक्कस्सहिदी पवद्धा तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । तस्सेव से काले उक्कस्समवहोर्ण। उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरो जो उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ तेण उक्कस्सडिदिखंडए हदे तस्स उक्क० हाणी । एवं सत्तसु पुढवीसु तिरिक्ख०-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज०पंचिंतिरि जोणिणी-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचि०पज्ज०तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय० - वेउविय-तिण्णिवेदस्थितिकाण्डकघात आदिके द्वारा जब सबसे अधिक स्थिति घटाई जाती है तब उस्कृष्ट हानि कहलाती है। तथा उत्कृष्ट वृद्धिके बाद जो अवस्थान होता है उसे उत्कृष्ट अवस्थान कहते हैं। ओघसे मोहनीय कर्मकी स्थितिमें ये तीनों पद सम्भव हैं अतः 'ओघसे मोहनीय कर्मकी स्थितिकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होता है। यह कहा है। इसी प्रकार जिस जिस मार्गणामें अपने अपने योग्य हानि, वृद्धि और अवस्थान सम्भव हैं उस उस मार्गणामें उसके अनुसार उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान जानना चाहिये। किन्तु कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें हानि ही होती है। जैसे आनत आदिक। फिर भी वहाँ स्थितिकी हानि एक समय प्रमाण भी होती है और अधिक भी होती है। अतः वहाँ उत्कृष्टपदकी अपेक्षा केवल उत्कृष्ट हानि बतलाई है, उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान ये दो पद नहीं बतलाये । जघन्य वृद्धि आदिका भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जहाँ उत्कृष्ट वृद्धि आदि सम्भव हैं वहाँ जघन्य वृद्धि आदि भी सम्भव हैं। किन्तु जहाँ उत्कृष्टकी अपेक्षा केवल उत्कृष्ट हानि है वहाँ जघन्यकी अपेक्षा केवल जघन्य हानि है। कारण स्पष्ट है।
इस प्रकार जघन्य समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६२३०. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-अोघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीय स्थितिविभक्तिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिको बांधकर स्थित है और स्थितिबन्धके कालके पूर्ण होनेपर उत्कृष्ट स्थितिके योग्य संक्लेशसे जिसने उत्कृष्ट स्थिति बांधी है ऐसे किसी एक जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो कोई एक जीव मोह कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला है वह जब उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करता है तब उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी. पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी
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