Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिपिहत्ती-३ १७४. कालाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० जह• एगसमो, उक्क चत्तारि समया। अप्पद० जह एगसमो, उक० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि अंतोमुहुत्तब्भहिएहि सादिरेयं । अवहिद० जह० एगसमओ, उक० अंतोमु० । एवमचक्खु०-भवसिद्धि । स्थिति विभक्तियां सम्भव हैं और सम्यग्दृष्टिके केवल एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही सम्भव है। इस अनुयोगद्वारमें इसी दृष्टिसे विचार किया गया है। पूर्वोक्त सूचनानुसार सामान्य सिद्धान्त यह निष्पन्न हुआ कि सामान्यसे मिथ्यादृष्टि जीव तीनों स्थिति विभक्तियोंके स्वामी हैं और सम्यग्दृष्टि जीव केवल एक अल्पतर स्थितिविभक्तिके ही स्वामी हैं। आदेशकी अपेक्षा भी विचार करनेका मूल यही है ।आनतसे लेकर नौ गवेयक तकके देवोंको व शुक्ललेश्यावालोंको छोड़कर शेष जिन मार्गणाओंमें मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन सम्भव है वहां मिथ्यादृष्टियोंको तीनों स्थितिविभक्तियों के स्वामी जानना चाहिये और सम्यग्दृष्टियोंको केवल एक अल्पतर स्थितिविभक्तिका ही स्वामी जानना चाहिये। ऐसी मार्गणाओंके नाम मूलमें गिनाये ही हैं। इतना विशेष जानना कि यहां सम्यग्दृष्टि पदसे सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियोंका भी ग्रहण कर लेना चाहिये, क्योंकि इनके भी एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है। मनुष्य अपर्याप्त आदि कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें एक मिथ्यादर्शन ही सम्भव है अतः यहां तीनों स्थितिविभक्तियोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव होता है । यद्यपि इस कसायपाहुडके अनुसार इनमें कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें सासादनसम्यक्त्व भी पाया जाता है पर उसकी अपेक्षासे यहां पृथक् कथन नहीं किया । फिर भी उसकी अपेक्षा विचार करने पर एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही प्राप्त होती है। अर्थात् ऐसे एकेन्द्रियादि जीव जो सासादनसम्यग्दृष्टि होंगे वे सासादनसम्यक्त्वके काल तक एक अल्पतर स्थितिविभक्तिके ही स्वामी होंगे। आनत कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंके तथा शुक्ललेश्यावालोंके मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन दोनों सम्भव हैं फिर भी यहां एक अल्पतर स्थिति ही होती है, अतः उक्त स्थानोंमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवको अल्पतर स्थितिविभक्तिका ही स्वामी बतलाया है । शेष मार्गणाओंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका स्वामी सम्यग्दृष्टि ही होता है, क्योंकि उनमें मिथ्यादर्शन सम्भव ही नहीं है।
• इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६ १७४. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल चार समय है। अल्पतर स्थिति विभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । अवस्थितस्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-किसी जीवने एक समय तक भुजगार स्थितिका बन्ध किया और दूसरे समयमें वह अल्पतर या अवस्थित स्थितिका बन्ध करने लगा तो भुजगारका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा जब कोई एक एकेन्द्रिय जीव पहले समयमें अद्धाक्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है, दूसरे समयमें संलशक्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है, तीसरे समयमें मरकर और एक विग्रहसे संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर असंज्ञियों के योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और चौथे समयमें शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है तब उस जीवके भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल चार समय प्राप्त होता है, इस प्रकार भुजगार स्थितिका जघन्यकाल
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