Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ तेत्तीस सागरोवमाणि । भवणादि जाय सहस्सारे त्ति एवं चेव । णवरि अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सद्विदी । भवण-वाण-जोदिसि० सगहिदी अंतोमुहुत्तूणा । प्राणदादि जाव सबसिद्धि त्ति अप्पदर० जह० जहण्ण हिदी, उक्क० उक्कस्सहिदी।
१७६. एइंदिय०भुज०-अवहि० मणुसभंगो। अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो असंखे०भागो । एवं बादरेई दिय-मुहुमेइंदिय-चत्तारिकाय तेसिं बादर-सुहुमवणप्फदि-बादरवणप्फदि-सुहुमवणप्फदि-णिगोद-बादरणिगोद-सुहमणिगोदे त्ति। एदेसिं पज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च एवं चेव । णवरि अप्पद० जह० एगसमो , उक्क० सगसगुकस्सहिदी ।
१८०.विगलिंदिय-विगलिंदियपज्जत्ताणं भुज०-अवहि० एइंदियभंगो। अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुकस्सहिदी। विगलिंदियअपज्ज. भुज०-अवहि० समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। उसमें भी भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्त कम कहना चाहिए। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार तकके देवोंके तीनों प्रकारकी स्थितियोंका बन्ध होता है । अतः सहस्रार स्वर्गतक अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त हो जाता है। पर इतनी विशेषता है कि भवनत्रिकोंमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता अतः वहां अल्पतरका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूतकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होगा। किन्तु आनतसे सर्वार्थसिद्धितक अल्पतर स्थितिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्टकाल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होगा, क्योंकि वहां एक अल्पतर स्थितिका ही बन्ध होता है । शेष कथन सुगम है।
१७६. एकेन्द्रियोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल मनुष्यों के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रेमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, उनके बादर और सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीवोंके जानना चाहिये । इन बादर एकेन्द्रिय आदिके जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद हैं उनके भी इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है।
६१८०. विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थिति विभक्तिका काल एकेन्द्रियों के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय
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