Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ सण्णि-असण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति ।
$ १७०. आणदादि जाव सव्वढ० मोह० अत्थि अप्पदरविहत्तिया। एवमाहारआहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो-परिहार०-सुहुमसांपरायः-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस-मुक्क०सम्मादि०-खइय-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि ।
___ एवं समुक्कित्तणाणुगमो समत्तो। ३१७१. सामित्ताणुगमेण दुविहो गिद्द सो–ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. भुज० अवहि कस्स ? अण्णद मिच्छादिहिस्स । अप्पदर० कस्स ? अण्ण० आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
१७०. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारावशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मियादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-भुजगार अनुयोगद्वार में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित इन तीनोंका विचार किया जाता है । इसके अवान्तर अधिकार तेरह हैं। जो निम्न हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । इनमें से पहले यहां ससुत्कीर्तनाका विचार करते हैं-ओघसे भुजगारस्थितिवाले, अल्पतर स्थितिवाले और अवस्थित स्थितिवाले जीव पाये जाते हैं। जो कर्म स्थितिसे अधिक स्थितिको प्राप्त हो उसे भुजगारस्थितिवाला कहते हैं। जो अधिक स्थितिसे कम स्थितिको प्राप्त हो उसे अल्पतरस्थितिवाला कहते हैं और जिसकी पहले समयके समान दूसरे समयमें स्थिति रहे उसे अवस्थित स्थितिवाला कहते हैं। इस प्रकार ओघकी अपेक्षा इन तीनों प्रकारके जीवोंका पाया जाना सम्भव है। सातों पृथिवीके नारकी आदि प्रायः बहुत सी मार्गणाओंमें इसी प्रकारकी स्थिति है अतः वहां भी ओघके समान तीनों प्रकारकी स्थितिवाले जीव जानना चाहिये, क्योंकि जिन मार्गणाओंमें मिथ्यादर्शन सम्भव है वहां तीनों विभक्तियां बन सकती हैं। केवल आनतसे लेकर नौ ग्रैवयक तकके देव तथा शुक्ललेश्यावाले इसके अपवाद हैं। किन्तु आनतादि कल्पोंमें, शुक्ललेश्यामें और सम्यग्दर्शनसे सम्बन्ध रखनेवाली शेष मार्गणाओंमें पहले समयमें प्राप्त हुई स्थितिसे द्वितीयादि समयोंमें स्थिति उत्तरोत्तर घटती जाती है, अतः इनमें केवल एक अल्पतर स्थिति ही जाननी चाहिये।
इस प्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६१७१. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश. निर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादष्टि जीवके होती है । अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी
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