Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा ० २२ ]
हिदिविहत्तीए फोसणं ___ १२६. वेउव्विय० उक्क० अणुक्क० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो अह-तेरह चोदस भागा वा देसूणा० । कम्मइय० मोह० उक्क लो० असं०भागो तेरहचोदसभागावा देसूणा । [अणुक्क० सव्वलोगो।] आभिणि०-सुद०-ओहि० मोह ० उक्क० अणुक्क० लो० असं०भागो अहचोदस भागा वा देमूणा । एवमोहिदंस०सम्मादि०वेदय०-उवसम०-सम्मामि ।
विशेषार्थ-यहां पृथिवीकायिक आदिमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श एकेन्द्रियोंके समान बतलाकर भी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श अलगसे बतलाया है। उसका कारण यह है कि उपर्युक्त मार्गणाओंमेंसे कुछमें तो अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक बन जाता है पर उनके पर्याप्तकोंमें वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है क्योंकि बादरपृथिवीकायिक पर्याप्तक आदि जीवोंने वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका ही स्पर्श किया है। बस इतनी विशेषताके लिये ही उक्त मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श अलगसे कहा है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त आदि जीवोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति उन्हीं जीवोंमें प्राप्त होती है जो संज्ञी तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति बांधकर पश्चात् इनमें उत्पन्न होते हैं। अब यदि इनके वर्तमान और अतीत स्पर्शका विचार करते हैं तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है अतः यहां उक्त मार्गणाओंमें सब लोक प्रमाण स्पर्शका निषेध किया है । यद्यपि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागका और सब लोकका स्पर्श करते है किन्तु मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जब विचार करते हैं तब उनका लोकके संख्यातवें भागके स्थानमें लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण ही स्पर्श प्राप्त होता है, क्योंकि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच या मनुष्य मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके पश्चात् बादर पर्याप्त वायुकायिकोंमें उत्पन्न होते हैं। उनके वर्तमान कालीन स्पर्शका योग लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण ही होता है । हां यदि अतीत कालीन उपपादकी अपेक्षा इसका विचार करते हैं तो वह सब लोक बन जाता है ।
8 १२६. वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग ओर कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। कार्मणकाययोगियोंमें माहनीय की उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लाकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। .
विशेषार्थ-वैक्रियिक काययोगमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श तीन प्रकार का बतलाया है। लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्श वर्तमानकालकी अपेक्षा बतलाया है, क्योंकि वैक्रियिककाययोगवालोंका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। अतीतकालीन स्पर्श पदविशेषोंकी अपेक्षा दो प्रकारका है, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु । इनमेंसे पहला विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक
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