Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा• २२ ] .
हिदिविहत्तीए अप्पाबहुगं ६ १६३. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो।
एवं भावाणुगमो समत्तो। $ १६४. अप्पाबहुआणुगमो दुविहो—जहण्णओ उक्कस्सो चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा मोह० उक्कस्सहिदिविहत्तिया जीवा । अणुक्क. अणंतगुणा । एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदियसव्ववणप्फदि०-सव्वणिोद० कायजोगि०-ओरालिय० ओरालियमिस्स-कम्मइय०णस०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण--असंजद-अचाखु०-तिण्णिले०-भवसि०अभवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-श्राहारि०-अणाहारि त्ति ।।
१६५. आदेसेण णेरइएमु मोह० सव्वत्थोवा उक्क । अणुक्क० असंखेजगुणा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्व-मणुस-मणुसअपज्ज-देव-भवणादि जाव अवराइद०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकाय-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-वेउव्विय-वेउव्यियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०
ही होते हैं अतः इनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके समान बन जाता है। इसी प्रकार उपशम सम्यक्त्व, सासादन और सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट स्थितिके समान अन्तर जानना, क्योंकि ये तीनों सान्तर मार्गणाएँ हैं अतः इनके जघन्य स्थितिके अन्तरमें उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरसे कोई विशेषता नहीं आती।
__ इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव है ।
__ इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। $१६४. अल्पबहुत्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और
आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनारहक जीवोंके जानना चाहिए।
६ १६५. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियेच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित स्वर्ग तक देव,सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, सभी त्रस, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी,
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