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आचार्यश्री ने कहा-उपदेश तो आज नही होगा। आप कुछ पूछना चाहे तो पूछिये ।
एक छात्र कहने लगा-क्या अणुव्रत के अन्तर्राष्ट्रीय प्रसार में हम कुछ सहयोग कर सकते हैं ? ___ इस अपरिचित स्थान में इस प्रकार का अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर सभी लोग आश्चर्य मे पड़ गए।
आचार्यश्री ने उनसे पूछा--तो क्या आप अणुव्रत से परिचित हैं ?
छात्र-हाँ मैंने उसका कुछ अध्ययन किया है । अणुव्रत-समिति से हमारा कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ है । यह कहते-कहते उसने अपनी जेव मे से कुछ एक पत्र निकालकर कहा-यह देखिए देवेन्द्र भाई का पत्र, यह देखिए हरभजनलालजी शास्त्री का पत्र, यह देखिए सुगनचन्दजी आचलिया का पत्र ।
आचार्यश्री ने देवेन्द्र के अक्षरो को पहचानते हुए कहा-हाँ इन्हे तो मैं भी पहचानता हूँ देवेन्द्र के ही अक्षर है।
आचार्यश्री तुम्हारा नाम क्या है ?
छात्र-मेरा नाम निर्मलकुमार श्रीवास्तव है । मैं वनारस मे B A. मे पढता था । पर आर्थिक सकट के कारण मुझे कालेज छोडना पडा । अब मैं एक स्थान पर सर्विस करता हूँ। अपने दूसरे सहपाठी की ओर सकेत करते हुए बोला—यह है मेरा मित्र जटाशकर प्रसाद । इसी प्रकार उसने अपने अन्य साथियो का भी आचार्य श्री से परिचय कराया। कहने लगा-हम लोग चाहते हैं कि अणुव्रत के प्रसार मे कुछ सहयोग कर सकें। __आचार्य श्री ने उन्हे पहले अणुव्रत का साहित्य पढने का परामर्श दिया तथा फिर अणुव्रत प्रसार के बारे मे अपने विचार बताने को कहा। आचार्यश्री ने उन्हे यह भी कहा-अणुव्रत-आन्दोलन नैतिक शुद्धि का