________________
१६५
के साथ साथ उसमे प्रचार की भी भारी लगन है । जहा भी उसे अवसर मिलता वह बडी निर्भीकता से अणुव्रतो की चर्चा छेड देती। इसीलिए उसने इस यात्रा मे अनेक लोगो को अणुव्रती बनाया है। पुरुषो के बीच भी वह बडी निर्भीकता से अणुव्रत के नियम बताती । यद्यपि वह अधिक पढी-लिखी नहीं है पर फिर भी उसकी कार्य करने की लगन अथाह है। थोडी-सी पूजी मे अपना जीवन-निर्वाह कर वह जितना समय सत्सगति मे लगाती है वह आश्चर्यजनक है। समाज की अन्य वहने भी उसकी प्रवृत्तियो से प्रेरणा ले सकती है।
लूणासर से पडिहारे का रास्ता एकदम टीवो से भरा पड़ा है । पहले जव सडको पर चला करते थे तो पैर घिस-घिस कर इतने सुन्न हो जाते कि बालू पर चलने की इच्छा होती थी। उस समय जब पहले दिन बालू पर चलने का अवसर मिला था तो पैरो को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। सुकोमल रजोरेणु का स्पर्श पाकर जैसे मन भी पुलकित हुआ जाता था। अब जब पैर वालू मे धस जाते है तो फिर सडक याद आने लगती है । वडा विचित्र नियम है इस मन.प्रकृति का । प्राप्त की उपेक्षा कर सदा यह अप्राप्ति मे भटका करता है।
पडिहारे मे पहले प्रवचन हुआ। फिर भिक्षा आई। आचार्यश्री भी कुछ घरो में स्वय भिक्षा लेने के लिए गये । मैं भी साथ था । एक घर में जव वे भिक्षा कर रहे थे तो एक भाई ने आग्रह किया-आज मैं तो मिष्टान्न ही दूंगा यह मेरी इच्छा है। प्राचार्यश्री मिप्टान्न नहीं लेना चाहते थे। पर उसके आग्रह को देखकर कहने लगे-अच्छा तुम्हारी बात हम मानते है तो हमारी बात तुम्हे भी माननी पडेगी। शब्द थोडे थे पर उनमे भाव बहुत गहरे थे। उनके पीछे न जाने उनकी कितनी सवेदना छिपी पड़ी थी। उस शब्द सकेत ने आत्मा को गद्गद् कर दिया।