________________
२६-३-६०
दस मील के विहार का सोच कर चले थे, वह बारह मील के करीब हो गया । यहा मील के पत्थर तो लगे हुए हैं नही जो ठीक से मील मीटर बताते । अत अनुमान से ही काम चलता है। जहां अनुमान से काम चलता है वहां थोडी-बहुत भूल तो रह ही जाती है। इसीलिए यहां पहुचने तक बडा विलम्ब हो गया । रास्ते मे कुछ भाइयो से पूछा, यहा से गाव कितनी दूर है तो कहने लगे-पाच कोस होगा। पांच कोस, याने दस मील । हम इसी अनुमान से चले थे पर यहां पहुचे तो दोपहर हो चुका था । पैर भी थोड़े-थोड़े जलने लगे थे । बुरी तरह से थक गए थे । गाव से दो मील पीछे एक छोटी-सी वस्ती भाई और वहां एक किसान से पूछा -- भाई | गाव कितनी दूर है ? तो कहने लगा - यह विल्कुल पास मे ही है । पर वह पास ही इतनी दूर हो गया कि किसी तरह पूरा होता ही नही था । सचमुच थके हुए राही को थोडा मार्ग भी बहुत लग जाने लगता है । इसके साथ-साथ एक बात यह भी है कि जो अभ्यस्त हो जाता है उसे बहुत भी थोडा लगने लग जाता है । किसान जो प्रतिदिन पैदल चलते हैं जैसे उन्हें कोस-दो-कोस तो कुछ लगता ही नही । पर हम तो थककर इतने चूर हो गए थे कि उस दो मील के पथ को बड़ी कठिनाई से पार किया । एक साधु तो वहा जगल मे ही एक पेड के नीचे सो गए थे । आचार्यश्री को जब यह पता चला तो उन्होंने झट से एक साधु को पानी लेकर उन तक पहुंचाने का आदेश दिया ।
करीब एक बजे हम भिक्षा के लिए जा रहे थे लगे तो एक वृक्ष की छाया के नीचे खडे हो गए ।
। मार्ग मे पैर जलने इतने मे एक वृद्ध