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मध्याह्न मे बरगद की ठडी छाया में प्रवचन का आयोजन किया गया था। ब्राह्मणो से लेकर किसानो तक सभी वर्गों और पेशो के लोग सभास्थल मे उपस्थित थे। आचार्यश्री भी निश्चित समय पर सभास्थल पर पहुच गये थे। पर वहा जाकर देखते हैं तो आगे का सारा 'स्थान तो बनिये लोगों ने रोक रखा है । किसान तो वेचारे दूर तक एक किनारे खडे हैं। अतः यहा आसन पर बैठते ही आचार्यश्री ने कहा-हमारी सभाएं सार्वजनिक सभाए है। उसमे पक्ति भेद नही होना चाहिए। मैं नहीं चाहता केवल बनियो को ही अपने विचार सुनाऊं । अपितु मेरी कामना है कि सभी लोग विना किसी भेदभाव के मेरे विचारो को सुनें। पर लगता है जैसे आगे बैठने का अधिकार केवल बनियो को ही रह गया है । किसान तो बेचारे जैसे अनधिकृत होकर एक और खड़े हैं । मैं यह अलगाव नहीं देखना चाहता। यह तो एक ब्रह्म-भोज है। इसमे सभी लोगो को समान रूप से भोजन करने का निमत्रण तथा अधिकार रहता है। अत जो किसान भाई पीछे खडे है उन्हे यह नही समझना चाहिए कि वे आगे नही पा सकते । साथ-ही-साथ आगे बैठे भाइयो से भी मैं यह कहना चाहूगा कि सारे स्थान को उन्हे अवगाहित नही करना चाहिए । किन्तु अपने किसान भाइयो को भी अपने समान अवकाश देकर , प्रवचन सुनने का लाभ देना चाहिए। सारे मनुष्य भाई-भाई है अतः हम सबका कर्तव्य है कि हम स्वय उठे तथा दूसरो को उठाने का प्रयत्न करें।