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३१-३-६०
यहां बहुत पुराने जमाने से जैन समाज का एक कोप चला आता है। जिसका समय-समय पर जैन समाज के लिए उपयोग होता है । पर कुछ वर्षों पहले एक ऐसी अप्रिय घटना घटित हो गई कि अन्तत: न्यायालय के द्वार खटखटाने पडे । घटना यह थी कि कोष की दो कुजिया श्री जो एक स्थानकवासी समाज के लोगों के पास रहती थी तथा दूसरी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक लोगो के पास । किसी को अर्थ की आवश्यकता होती तो दोनो इकट्ठे होते और उपयुक्त राशि उसमे से निकाल लेते। एक वार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक लोगो को कुछ अर्थ की आवश्यकता हुई तो आपसी संघर्ष के कारण स्थानकवासी भाई उस समय उपस्थित नहीं हुए। पीछे से मूर्तिपूजक भाइयो ने अपनी कुजी से भडार खोल लिया तथा उसमे से अपनी आवश्यकता के अनुरूप अर्थ निकाल लिया । तब फिर क्या था ? मानो अग्नि मे घी पड़ गया और सारा समाज उद्वेलित हो उठा। आपस मे तनातनी वढ गई आपसी समझौते की आशा क्षीण होने लगी। मामले को न्यायालय तक पहुचाना पडा । किन्तु वहा जाकर वह और भी उलझ गया। दोनो ओर से दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह हजार रुपये व्यय हो गये । आखिर सुलझाव कोई नहीं हुआ। दोनो ओर के लोग तंग थे। भला एक ही समाज के सदस्य आपस में इस प्रकार लडें इससे बढकर लज्जाजनक बात और क्या हो सकती है ? और वह भी धार्मिक सम्बन्धो को लेकर । अर्थ का ही प्रश्न था। अतः दोनो ने मिलकर फिर एक पचायत की। पचो ने निर्णय दिया कि आज से भडार की कुजी एक ही रहेगी । वह न स्थानकवासी समाज के पास रहेगी और न मूर्ति